ईश्वर

ईश्वर क्या है?
यह प्रश्न कितनों के मन में नहीं है! कल एक युवक पूछ रहे थे। और यह बात ऐसे पूछी जाती है, जैसे कि ईश्वर कोई वस्तु है- खोजने वाले से अलग और भिन्न और जैसे उसे अन्य वस्तुओं की भांति पाया जा सकता है। ईश्वर को पाने की बात ही व्यर्थ है- और उसे समझने की भी। क्योंकि वह मेरे आरपार है। मैं उसमें हूं और ठीक से कहें तो 'मैं' हूं ही नहीं, केवल वही है।
ईश्वर 'जो है' उसका नाम है। वह सत्ता के भीतर 'कुछ' नहीं है; स्वयं सत्ता है। उसका अस्तित्व भी नहीं है, वरन अस्तित्व ही उसमें है। वह 'होने' का अस्तित्व का, अनाम का नाम है।
इससे उसे खोजा नहीं जाता है, क्योंकि मैं भी उसी में हूं। उसमें तो खोया जाता है और खोते ही उसका पाना है।
एक कथा है। एक मछली सागर का नाम सुनते-सुनते थक गयी थी। एक दिन उसने मछलियों की रानी से पूछा : 'मैं सदा से सागर का नाम सुनती आयी हूं, पर सागर है क्या? और कहां है?' रानी ने कहा, 'सागर में ही तुम्हारा जन्म है, जीवन है और जगत है। सागर ही तुम्हारी सत्ता है। सागर ही तुम में है और तुम्हारे बाहर है। सागर से तुम बनी हो और सागर में ही तुम्हारा अंत है। सागर प्रतिक्षण तुम्हें घेरे हुए है।'
ईश्वर प्रत्येक को प्रतिक्षण घेरे हुए है। पर हम मूर्छित हैं, इसलिए उसका दर्शन नहीं होता है। मूच्र्छा जगत है, संसार है। अमूच्र्छा ईश्वर है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)