विजय पथ

मैंने कल कहा है : मिट्टी फूल बन जाती है। और गंदगी खाद बनकर सुगंध में परिणत हो जाती है। ऐसे ही मनुष्य के विकार हैं। जो मनुष्य में पशु जैसे दिखते हैं। वही दिशा परिवर्तित होने पर दिव्यता को उपलब्ध हो जाते हैं।
इसलिए अदिव्य भी बीजरूप में दिव्य हैं और तब वस्तुत: अदिव्य कुछ भी नहीं हैं। समस्त जीवन दिव्यता है। सब कुछ दिव्य है। भेद केवल उस दिव्यता की अभिव्यक्ति का है।
और ऐसा देखने पर कुछ भी घृणा करने योग्य नहीं रह जाता है। जो एक छोर पर पशु है, वही दूसरे छोर पर प्रभु है। पशुता और दिव्यता में विरोध नहीं, विकास है। ऐसी पृष्ठभूमि में चलने पर आत्म-दमन और उत्पीड़न व्यर्थ है। यह संघर्ष अवैज्ञानिक है। अपने को दो में तोड़कर कोई भी आत्म-शांति और ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सकता है।
जो मैं ही हूं, उसके एक अंश को नष्ट किया जा सकता है। वह दब सकता है, लेकिन जिसका दमन किया गया है, उसका निरंतर दमन करना होता है। जो हारा गया है, उसे निरंतर हारना होता है। विजय उस मार्ग से कभी पूर्ण नहीं हो पाती है।
विजय का पथ दूसरा है। वह दमन का नहीं, ज्ञान का है। वह गंदगी को हटाने का नहीं है, क्योंकि वह गंदगी भी मैं ही हूं। वह उसे खाद बनाने का है। इसे ही पुरानी अलकेमी में 'लोहे को स्वर्ण बनाना' कहा गया है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)