चित्त की पूर्ण स्वतंत्रता


सत्य को चाहते हो, तो चित्त को किसी 'मत' से मत बांधो। जहां मत है, वहां सत्य नहीं आता। मत और सत्य में विरोध है।

सत्य की खोज के लिए मुक्त-जिज्ञासा पहली सीढ़ी है। और, जो व्यक्ति स्वानुभूति के पूर्व ही किन्हीं सिद्धांतों और मतों से अपने चित्त को बोझिल कर लेता है, उसकी जिज्ञासा कुंठित और अवरुद्ध हो जाती है।

जिज्ञासा- खोज की गति और प्राण है। जिज्ञासा के माध्यम से ही विवेक जाग्रत होता और चेतना ऊ‌र्ध्व बनती है। लेकिन, जिज्ञासा आस्था से नहीं, संदेह से पैदा होती है और इसलिए मैं आस्था को नहीं, सत्य-पथ के राही का पाथेय मानता हूं। संदेह स्वस्थ चिंतन का लक्षण है और उसके सम्यक अनुगमन से ही सत्य के ऊपर पड़े परदे क्रमश: गिरते जाते हैं और एक क्षण सत्य का दर्शन होता है।

यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि आस्तिक और नास्तिक दोनों ही आस्थावान होते हैं। आस्था विधायक और नास्तिक दोनों ही प्रकार की होती है। संदेह चित्त की एक तीसरी ही अवस्था है। वह अविश्वास नहीं है और न ही विश्वास है। वह तो दोनों से मुक्त खोज के लिए स्वतंत्रता है।

और, सत्य की खोज वे कैसे कर सकते हैं, जो कि पूर्व से ही किन्हीं मतों से आबद्ध हें? मतों के खूंटों से विश्वास या अविश्वास की जंजीरों को जो खोल देता है, उसकी नाव ही केवल सत्य के सागर में यात्रा करने में समर्थ हो पाती है।

सत्य के आगमन की शर्त है : चित्त की पूर्ण स्वतंत्रता। जिसका चित्त किन्हीं सिद्धांतों में परतंत्र है, वह सत्य के सूर्य के दर्शन से वंचित रह जाता है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)