अहं-दृष्टिं का अवरोध


सत्य और स्वयं में जो सत्य को चुनता है, वह सत्य को पा लेता है और स्वयं को भी। और, जो स्वयं को चुनता है, वह दोनो को खो देता है।
मनुष्य को सत्य होने से पूर्व स्वयं को खोना पड़ता है। इस मूल्य को चुकाये बिना सत्य में कोई गति नहीं है। उसका होना ही बाधा है। वही स्वयं सत्य पर पर्दा है। उसकी दृष्टिं ही अवरोध है- वह दृष्टिं जो कि 'मैं' के बिंदु से विश्व को देखती है। 'अहं-दृष्टिं' के अतिरिक्त उसे सत्य से और कोई भी पृथक नहीं किये है। मनुष्य का 'मैं' हो जाना ही, परमात्मा से उसका पतन है। 'मैं' की पार्थिवता में ही वह नीचे आता है और 'मैं' के खोते ही वह अपार्थिव और भागवत-सत्ता में ऊपर उठ आता है। 'मैं' होना नीचे होना है। 'न मैं' हो जाना ऊपर उठ जाना है।
किंतु, जो खोने जैसा दीखता है, वह वस्तुत: खोना नहीं-पाना है। स्वयं की, जो सत्ता खोनी है, वह सत्ता नहीं स्वप्न ही है और उसे खेकर जो सत्ता मिलती है, वही सत्य है।
बीज जब भूमि के भीतर स्वयं को बिलकुल खो देता है, तभी वह अंकुरित होता है और वृक्ष बनता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)