आलोचना रुग्ण मानसिकता!


जो जीवन में कुछ भी नहीं कर पाते, वे अक्सर आलोचक बन जाते हैं। जीवन-पथ पर चलने में जो असमर्थ हैं, वे राह के किनारे खड़े हो, दूसरों पर पत्थर ही फेंकने लगते हैं। यह चित्त की बहुत रुग्ण दशा है। जब किसी की निंदा का विचार मन में उठे, तो जानना कि तुम भी उसी ज्वर से ग्रस्त हो रहे हो! स्वस्थ व्यक्ति कभी किसी की निंदा में संलग्न नहीं होता। और, जब दूसरे उसकी निंदा करते हों, तो उन पर दया ही अनुभव करता है। शरीर से बीमार ही नहीं, मन से बीमार भी दया का पात्र है।
नार्मन विन्सेंट पील ने कहीं लिखा है, ''मेरे एक मित्र हैं, सुविख्यात समाजसेवी। कई बार उनकी बहुत निंदनीय आलोचनाएं होती हैं, लेकिन उन्हें कभी किसी ने विचलित नहीं होते देखा है। जब मैंने उनसे इसका रहस्य पूछा, तो वे मुझसे बोले, 'जरा अपनी एक अंगुली मुझे दिखाइए।' मैंने चकित भाव से अंगुली दिखाई। तब वे कहने लगे, ''देखते हैं! आपकी एक अंगुली मेरी ओर है, तो शेष तीन अंगुलियां आपकी अपनी ही ओर हैं। वस्तुत:, जब कोई किसी की ओर अंगुली उठाता है, तो उसके बिना जाने उसकी ही तीन अंगुलियां स्वयं उसकी ही ओर उठ जाती हैं। अत: जब कोई मेरी ओर दुर्लक्ष्य करता है, तो मेरा हृदय उसके प्रति दया से भर जाता है, क्योंकि, वह मुझसे कहीं बहुत अधिक अपने आप पर प्रहार करता है।''
जब कोई तुम्हारी आलोचना करे, तो अफलातूं का एक अमृत वचन जरूर याद कर लेना। उसने यह सुनकर कि कुछ लोग उसे बहुत बुरा आदमी बताते हैं, कहा था, ''मैं इस भांति जीने का ध्यान रखूंगा कि उनके कहने पर कोई विश्वास ही नहीं लाएगा।''
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)