कल्पना ध्यान नहीं!


परमात्मा के नाम पर कल्पनाएं सिखाई जाती हैं। जबकि, सत्य के दर्शन कल्पनाओं से नहीं, वरन सब कल्पनाएं छोड़ देने पर ही होते हैं। जो कल्पना में है, वह स्वप्न में है। वह देख रहा है, जो कि देखना चाहता है- 'वह नहीं, जो कि है।'
एक सूफी साधु को किसी विद्यालय में ले जाया गया। उस विद्यालय में बालकों को एकाग्रता का विशेष अभ्यास कराया जाता था। कोई दस-बारह बच्चे उसके सामने लाए गए और उनमें से प्रत्येक को एक खाली सफेद परदे पर ध्यान एकाग्र करने का कहा गया और कहा गया कि मन की सारी शक्ति को इकट्ठा कर वे देखें कि उन्हें वहां क्या दिखाई पड़ता है। एक छोटा सा बच्चा देखता रहा और फिर बोला : ''गुलाब का फूल।'' उसकी आंखों से लगता था कि वह गुलाब का फूल देख रहा है। किसी दूसरे ने कुछ और कहा, तीसरे ने कुछ और। वे अपनी ही कल्पनाओं को देख रहे थे। और, कितने ऐसे बूढ़े हैं, जो कि उन बच्चों की भांति ही क्या अपनी कल्पनाओं को नहीं देखते रहते हैं? कल्पनाओं के ऊपर जो नहीं उठता, वह असल में अप्रौढ़ ही बना रहता है। प्रौढ़ता कल्पना-मुक्त दर्शन से ही उपलब्ध होती है। फिर, एक बच्चे ने बहुत देर देखने के बाद कहा, ''कुछ भी नहीं। मुझे तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता!'' उसे फिर देखने को कहा गया। किंतु, वह पुन: बोला, ''क्षमा करें। कुछ है ही नहीं, तो क्या करूं!'' उसके अध्यापकों ने उसे निराशा से दूर हटा दिया और कहा कि उसमें एकाग्रता की शक्ति नहीं है। वे उनसे प्रसन्न थे, जिन्हें कुछ दिखाई पड़ रहा था। जबकि जो उनकी दृष्टिं में असफल था, वही सत्य के ज्यादा निकट था। उसे, जो दिखाई पड़ रहा था, वही दिखाई पड़ रहा था।
सत्य मनुष्य की कल्पना नहीं है- न ही परमात्मा। कल्पना से जो देखता है, वह असत्य देखता है। कल्पना का नाम ध्यान नहीं है। वह तो ध्यान के बिलकुल ही विपरीत स्थिति है। कल्पना जहां शून्य होती है, ध्यान वहीं प्रारंभ होता है। और, कल्पना में नहीं, कल्पना-शून्य ध्यान में जो जाना जाता है, वही सत्य है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)