नीति मार्ग नहीं है- गतांक से आगे

नैतिक व्यक्ति तो द्वंद्वग्रस्त व्यक्ति है। नैतिक व्यक्ति धार्मिक व्यक्ति नहीं है। तो क्या मैं यह कह रहा हूं कि आप अनैतिक हो जाएं? नहीं, मैं आपसे यह कह रहा हूं कि नैतिक होने से आप इस भूल में मत पड़ जाना कि आप धार्मिक हो गए हैं। धार्मिक होना आयाम ही दूसरा है, दिशा ही दूसरी है। वह बात ही और है। वह सुगंध और है। वह प्रकाश और है। नैतिक मनुष्य को न तो कोई प्रकाश मिलता है, न कोई सुगंध और न कुछ। बल्कि नैतिक मनुष्य का सारा रस अहंकार का रस होता है। जैसे हम अच्छे-अच्छे वस्त्र पहन कर शानदार दिखाई पड़ने लगते हैं, हममें जो बहुत चालाक हैं वे अच्छा आचरण करके बहुत शानदार हो जाते हैं। उनका अहंकार तृप्त होता है इस बात से कि मैं झूठ नहीं बोलता, मैं चोर नहीं हूं, मैं बेईमान नहीं हूं। मैं बेईमान हो सकता हूं? तुम होओगे बेईमान, सारी दुनिया होगी बेईमान, लेकिन मैं? मैं सात्विक पुरुष और नैतिक पुरुष, मैं बेईमान हो सकता हूं, चोर हो सकता हूं। तो यह नैतिक पुरुष तो ईगोइस्ट होता है। और नैतिक पुरुष से ज्यादा अहंकारी आदमी खोजना मुश्किल है। और इसीलिए नैतिक पुरुष दूसरे की अनीति में हमेशा झांकता रहता है। देखता रहता है कि कौन-कौन चोरी कर रहा है। क्योंकि इसी में उसे रस होता है कि मैं चोरी नहीं करता हूं। कौन-कौन चोरी करता है। नैतिक पुरुष दूसरों की दीवाल में छेद करके झांकता रहता है कि दूसरे लोग अपने घरों में क्या कर रहे हैं। नैतिक व्यक्ति निंदक होता है हमेशा दूसरों का। क्योंकि उसका सारा रस ही इस बात में है कि वह नैतिक है और दूसरे लोग नैतिक नहीं हैं।
इसलिए जो कौम नीति के चक्कर में पड़ जाती है वह निंदक हो जाती है। हम अपने ही मुल्क में इस बात को भलीभांति जानते हैं। हमारे मुल्क जैसे निंदक लोग कहां खोजने से मिलेंगे। और हमारे जैसे मुल्क के लोग नीति के प्रेमी भी और कहां मिलेंगे। दिन-रात सुबह से शाम तक नीति की चर्चा करते हैं। और दिन-रात सुबह से शाम तक दूसरों की निंदा करते हैं और दूसरों के वस्त्र उघाड़ कर देखते हैं और दूसरों की दीवालों में झांकते हैं। क्यों? यह अनिवार्य है। क्योंकि नैतिक पुरुष का एक ही मजा है कि मैं भला आदमी हूं। और यह भलापन उतना ही बड़ा हो जाता है जितने दूसरे लोग बुरे सिद्ध हो जाते हैं। इसलिए हर नैतिक आदमी दूसरे को बुरा सिद्ध करने में लगा रहता है।
लेकिन धार्मिक व्यक्ति बहुत दूसरे तरह का व्यक्ति होता है। उसकी नैतिकता उसके धार्मिक स्वभाव से बहती है वैसे ही जैसे दीये से प्रकाश बहता है, फूल से सुगंध बहती है। उसे पता भी नहीं चलता कि मैं नैतिक हूं। और इसलिए धार्मिक व्यक्ति कभी किसी दूसरे की अनीति में झांक कर देखने की कोशिश भी नहीं करता। बल्कि अगर आप उसे दिखाना भी चाहें तो उसे दिखना मुश्किल हो जाएगा।
जापान में एक रात एक फकीर के घर में एक चोर घुसा। दरवाजा धकाया, सोचता था बंद होगा, लेकिन फकीर का दरवाजा था, बंद किसके लिए किया जाता, वह खुला था, अटका हुआ था। चोर को अंदाज न था कि फकीर जगता होगा, कोई बारह बजे थे रात के। भीतर गया तो घबड़ा गया, फकीर बैठा था, कुछ चिट्ठी-पत्री लिखता था। उस फकीर ने कहा: आओ, आओ, इतनी रात को तो कोई कभी आता नहीं, कैसे आए मित्र? उस फकीर को खयाल भी नहीं आया कि यह आदमी चोर हो सकता है या हत्यारा हो सकता है। आधी रात में दूसरे के घर में एकदम से घुस आया और हाथ में उसके छुरा था नंगा। लेकिन उस फकीर ने कहा: आओ, आओ मित्र, इतनी रात गए तो कोई भी नहीं आता, आओ, बैठो। उस फकीर की प्रेम भरी बात सुन कर उस चोर को लौट कर भागना भी आसान न हुआ। मजबूरी में उसे बैठ जाना पड़ा कुर्सी पर। उस फकीर ने पूछा: क्या इरादे हैं? कैसे आए? क्या चाहते हो? उस सीधे-सरल आदमी के सामने झूठ बोलना भी शायद आसान नहीं हुआ। उस चोर ने कहा कि मैं चोरी करने आया हूं। उस फकीर ने कहा: बड़े बेवक्त आए। एक-दो दिन पहले तो खबर करनी थी, तो मैं कुछ व्यवस्था करता कि तुम चोरी करके ले जाते। फकीर का झोपड़ा है। बड़ी दुविधा में तुमने मुझे डाल दिया। तो क्या तुम्हें दूं? हां, अच्छा ही हुआ, सुबह एक आदमी आया था और दस रुपये भेंट कर गया था, वे रखे हैं। लेकिन इतने से पैसे में...तुम इतनी दूर आए अंधेरी रात में और फकीर के झोपड़े पर आए, इसी से पता चलता है कि कितनी मुसीबत में और कितनी जरूरत में होओगे, दस रुपये से काम चल सकेगा? वह चोर तो बहुत घबड़ा गया। उसकी कुछ समझ में नहीं आया कि क्या करे। फकीर उठा उसने अपने आले से दस रुपये निकाले और उस चोर को दिए। और कहा कि अगर तुम्हारी मर्जी हो तो एक रुपया छोड़ जाओ, सुबह-सुबह कभी मुझे जरूरत पड़ जाती है। उस चोर ने एक रुपया छोड़ दिया और वह भागा निकल कर। फकीर चिल्लाया और उसने कहा कि रुको मित्र, दरवाजा तो कम से कम अटका दो और कम से कम मुझे धन्यवाद तो दे जाओ, क्योंकि दस रुपये जो तुमने लिए हैं वे तो कल चुक जाएंगे, लेकिन दिया हुआ धन्यवाद कभी पीछे भी काम पड़ सकता है, तो धन्यवाद देते चले जाओ।
वह चोर किसी तरह धन्यवाद देकर वहां से भागा। पीछे वह पकड़ा गया और मुकदमा चला। और भी बहुत सी चोरियां उसके ऊपर थीं। इस फकीर की चोरी का मामला भी था। इस फकीर को अदालत में बुलाया गया। वह चोर बहुत डरा हुआ था, कि अगर उस फकीर ने पहचान लिया तो उसका पहचानना ही काफी होगा, फिर किसी और प्रमाण की जरूरत न रह जाएगी। वह इतना प्रसिद्ध आदमी था।
मजिस्ट्रेट ने पूछा उस फकीर को कि आप पहचानते हैं इसे?
उसने कहा: भलीभांति पहचानता हूं, ये मेरे मित्र हैं। और कई बार तो ऐसा हुआ है कि आधी रात भी आ गए हैं। मित्र के घर ही कोई आधी रात को आता है, ऐसे किसके घर कौन जाता है। वह फकीर ने यह कहा, वह चोर तो घबड़ाया हुआ था।
मजिस्ट्रेट ने पूछा: इसने कभी तुम्हारे यहां चोरी की?
उसने कहा कि नहीं, कभी नहीं। एक बार ये आए थे तो नौ रुपये मैंने इन्हें दिए थे, लेकिन उसके लिए इन्होंने धन्यवाद दे दिया था। बात खतम हो गई, उसका कोई लेना-देना बाकी नहीं रहा। और ये आदमी बहुत भले हैं मैं आपसे कह दूं, क्योंकि मैंने इनसे कहा था एक रुपया छोड़ जाओ, तो ये छोड़ गए थे। और मैंने इनसे कहा, दरवाजा अटका दो, तो इन्होंने दरवाजा अटका दिया था। और मैंने इनसे कहा कि धन्यवाद दे दें, तो यह इतना सीधा आदमी कि इसने मुझे धन्यवाद भी दिया था। कौन कहता है यह चोर है?
यह एक धार्मिक व्यक्ति का अनुभव होता है जीवन के प्रति। उसे चोर दिखना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि उसके भीतर का चोर मर जाता है। उसे बेईमान दिखना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि उसके भीतर का बेईमान मर जाता है। उसे हत्यारा दिखना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि उसके भीतर का हत्यारा मर जाता है। नैतिक व्यक्ति के भीतर खूब घनीभूत हो जाता है हत्यारा, चोर और बेईमान, तो उसे हर एक के भीतर चोर, बेईमान दिखाई पड़ने लगता है।
(सौजन्‍य से  : ओशो न्‍यूज लेटर)