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धर्म, सम्राट बनाने की कला है -अन्तिम



   


बुद्ध एक गांव से गुजरते थे, एक पहाड़ से गुजरते थे। कुछ मित्रों ने कहा कि वहां मत जाएं! वहां एक आद मी पागल हो गया है और वह आदमियों की गरदनें काट कर उनकी अंगुलियां निकाल कर उनकी मालाएं बनाता है। उसने एक हजार आदमियों को मारने का व्रत लिया है। नामालूम कितने लोगों को मार चुका है। वह रास्ता बंद हो गया है, अब कोई वहां जाता नहीं। आप भी मत जाएं! 
बुद्ध ने कहा, वह बेचारा प्रतीक्षा करता होगा। कोई भी नहीं जाएगा तो बहुत निराश होगा। मुझे जाने दो। फिर मुझे मृत्यु का कोई भय भी नहीं है, क्योंकि अब मैं वहां पहुंच गया जहां मृत्यु नहीं होती। तो मैं जाता हूं। नहीं माने वे, वे चले गए उस रास्ते पर। वह आदमी, अंगुलीमाल नाम का आदमी, अपने फरसे पर धार रखता था एक पहाड़ के पास बैठ कर। उसने बुद्ध को आते देखा। वह हैरान हुआ! महीनों से कोई भी नहीं आता था उस रास्ते पर, शायद इस भिक्षु को कुछ पता नहीं है। नादान, निर्दोष, चुपचाप चला आता है! उसे दया आई, इस भोले से आदमी को देख कर उसे भी दया आई। उसने फरसा ऊपर उठा कर चिल्ला कर कहा कि रुक जाओ वहीं! आगे मत बढ़ना, नहीं तो मैं गरदन काट लूंगा। वापस लौट जाओ! अगर एक कदम आगे बढ़े तो जिंदगी खतरे में है। लेकिन बुद्ध बढ़ते चले गए। वह आदमी फिर चिल्लाया कि सुनते नहीं हो? बहरे हो? बुद्धि नहीं है? लौट जाओ, आगे मत बढ़ो, अन्यथा गरदन कट जाएगी! 
बुद्ध ने कहा, पागल, मैं तो बढ़ ही नहीं रहा, मैं तो जमाना हुआ तभी से ठहर गया हूं। मैं कहां बढ़ रहा हूं! तू बढ़ रहा है। अब बड़ी अजीब बात हो गई। वह आदमी खड़ा था फरसा लिए, बढ़ नहीं रहा था। और बुद्ध चल रहे थे उसकी तरफ। और कहने लगे, मैं नहीं बढ़ रहा हूं, तू बढ़ रहा है। उस आदमी ने कहा, आदमी पागल मालूम होता है। तुम पागल हो! एक तो तुम आए इस तरफ, यही पागलपन है। और दूसरा अब तुम यह पागलपन कर रहे हो कि चलते हो खुद और कहते हो मैं ठहरा हुआ हूं और मुझ ठहरे हुए को बताते हो कि तू चल रहा है।
बुद्ध ने कहा, सच, मैं तुझसे यही कहता हूं। जब तक मन चलता था तब तक मैं चलता था। अब मन ठहर गया, अब मैं नहीं चलता हूं। और तेरा मन चल रहा है तो तू चल रहा है। और मैं तुझे एक अजीब बात बताता हूं: जब से मैं ठहर गया तब से मैंने वह सब पा लिया जो पाने जैसा था। और जब तक चलता था तब तक वह सब खो दिया था जो अपना था और उस सबको पकड़ लिया था जो अपना नहीं था। और जो अपना नहीं था, वह लाख उपाय करो तो भी अपना नहीं हो सकता। और जो अपना है, उसे हम भूल ही सकते हैं, वस्तुतः कभी खो नहीं सकते। बुद्ध ने कहा, मैं रुक गया और पा लिया। वह आदमी कुछ भी नहीं समझा। उसने कहा, कहां की बातें कर रहे हो? कैसा रुकना? कैसा पाना? किसको पाने की बात कर रहे हो? 
बुद्ध ने उस आदमी से कहा, जब तक तू बाहर देखता रहेगा, तुझे पता भी नहीं चलेगा कि भीतर भी कुछ पाने जैसा है। लेकिन वह पाने की तरकीब रुक जाना है, ठहर जाना है। लेकिन हम? हम सोचते हैं कि धर्म के रास्ते पर भी कहीं जाना पड़ेगा। और इसलिए गुरु शोषण करता है। गुरु कहता है, हम ले जा सकते हैं, हम पहुंचा देंगे।
वहां जाने का नहीं है कहीं भी। वहां ठहर जाने का है। बाहर से भीतर में आओ। और भीतर कहीं मत जाओ, ठहर जाओ। और वहां पहुंच जाओगे जहां परमात्मा है। यह सूत्र ठीक से समझ लें। बाहर से भीतर मुड़ आओ। और भीतर कहीं मत जाओ, ठहर जाओ, रुक जाओ, भीतर चलो ही मत। और वहां पहुंच जाओगे जिसका नाम परमात्मा है। वह भीतर मौजूद है। एक बार हम रुक कर उसे देख लें, तो वह हमारी पहचान में आ जाता है। क्योंकि हम वही हैं।
लेकिन गुरु कहता है, हम चलाएंगे। हमारे अनुयायी बनो, हम जो कहते हैं वह मानो, हम जिस दिशा में कहते हैं उस दिशा में चलो। और फिर बस गलत धर्म पर चलना शुरू हो गया, फिर हम भटकेंगे, भटकेंगे...। और बाहर से तो बचना आसान है, भीतर के इस गलत रास्ते से बचना बहुत मुश्किल है। क्योंकि बाहर जो जिंदगी है वह जिंदगी अपने आप उकसाती है, हमें जगाती है भीतर जाने को। लेकिन भीतर अगर हमने एक सपने का रास्ता पकड़ लिया तो वहां से कोई जागरण नहीं है, वहां निद्रा गहरी होती चली जाती है और आदमी खो जाता है।
यह दुनिया में जो इतना अधर्म है, इस अधर्म का कारण नास्तिक नहीं हैं, इस अधर्म का कारण अधार्मिक नहीं हैं, इस अधर्म का कारण ईश्वर-विरोधी नहीं हैं। इस अधर्म का कारण वे लोग हैं जो धर्म के नाम पर एक मिथ्या-धर्म की लकीर पीटते हैं और उस लकीर के रास्ते पर लोगों को भटकाते हैं।
करोड़ों-करोड़ों लोगों को करोड़ों-करोड़ों वर्षों से धर्मगुरुओं ने भटकाया है। और वे आज भी भटका रहे हैं। हिंदू को मुसलमान से लड़ा रहे हैं, जैन को हिंदू से लड़ा रहे हैं, ईसाई को बौद्ध से लड़ा रहे हैं। सारी दुनिया में धर्मगुरु झगड़ों के अड्डे हैं।
धर्म का झगड़े से क्या संबंध हो सकता है? मंदिर और मस्जिद का अगर धर्म से कोई संबंध हो, तो झगड़ा नहीं हो सकता। लेकिन नहीं, अब तक आदमी इन्हीं झगड़ों में नष्ट हुआ है। और व्यर्थ की चीजें एक-एक आदमी को पकड़ाई जा रही हैं। किसी को कहा जा रहा है कि माला फेरो। किसी को कहा जा रहा है कि उठो-बैठो, कवायद करो--इसका नाम नमाज है। किसी को कहा जा रहा है कि कान में, आंख में अंगुलियां डालो--इसका नाम सामायिक है। किसी को कुछ समझाया जा रहा है, किसी को कुछ समझाया जा रहा है। इन सारी झूठी और पाखंड की बातों में आदमी को भटकाया जा रहा है। किसी को कहा जा रहा है राम-राम जपो, किसी को कहा जा रहा है कृष्ण-कृष्ण जपो, किसी को कहा जा रहा है अल्लाह-अल्लाह करो।
लेकिन कुछ भी चिल्लाओ, कुछ भी चिल्लाओ, वहां नहीं पहुंचोगे। वहां वे पहुंचते हैं, जिनकी वाणी भी ठहर जाती है, शब्द भी ठहर जाते हैं, विचार भी ठहर जाते हैं। वहां न राम-राम चिल्लाने की जरूरत है, न कृष्ण-कृष्ण चिल्लाने की जरूरत है। क्योंकि चिल्लाने से वहां कोई पहुंचता नहीं। वहां चुप हो जाने की जरूरत है, वहां मौन हो जाने की जरूरत है। वहां केवल वे पहुंचते हैं जो सब भांति मौन हो जाते हैं, सब भांति साइलेंट हो जाते हैं, सब भांति चुप हो जाते हैं। चुप्पी ले जाती है वहां।
समाप्‍त
(सौजन्‍य से – ओशो न्‍यूज लेटर)