प्रतिबद्धता का भय- अंतिम



संबंधों में शांति पूर्वक रहना बहुत कठिन है। लेकिन वही चुनौती है। यदि तुम उससे बचते हो तो तुम परिपक्वता से वंचित रह जाओगे। यदि तुम समूची पीड़ा के साथ उसमें उतरोगे, और फिर भी उसमें जाते रहोगे तो धीरे-धीरे वह पीड़ा एक आशीष बन जाती है, अभिशाप वरदान बन जाता है। धीरे-धीरे संघर्ष के द्वारा, घर्षण के द्वारा केंद्रीकरण होता है।उस संघ के द्वारा तुम अधिक सजग, अधिक सावचेत हो जाते हो।दूसरा व्यक्ति तुम्हारे लिए आईना बन जाता है। तुम अपनी कुरूपता दूसरे में प्रतिफलित हुाई देख सकते हो। दूसरा तुम्हारे अचेतन को उकसाता है, उसे सतह पर लाता है। तुम्हें अपने अंतरतम के सभी छुपे हुए हिस्सों को जानना होगा, और उसका सबसे आसान तरीका है प्रतिफलित होना, संबंध के दर्पण में झांकना। मैं इसे सरल कहता हूं क्योंकि इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है लेकिन है यह बहुत दूभर, कठिन क्योंकि इसके द्वारा खुद को बदलना होगा।

जब तुम सद्गुरु के पास आते हो तब तो इससे भी बड़ी चुनौती खड़ी होती है, तुम्हें निर्णय लेना होता है; और निर्णय अज्ञात के पक्ष में लेना होता है और निर्णय समग्र और अंतिम होता है, अपरिवर्तनीय होता है। यह बच्चों का खेल नहीं है, यह वापिस न लौटने का बिंदु है।इतना संघर्ष होता है। लेकिन लगातार बदलते मत रहो क्योंकि यह खुद से बचने का उपाय है। और तुम कोमल रहोगे, तुम बचकाने रहोगे, परिपक्व नहीं होओगे। केवल अज्ञात ही तुम्हें आकर्षित करे क्योंकि उसे तुमने अभी तक जीया नहीं हैउस क्षेत्र में तुम गए नहीं हो। वहां जाओ! वहां कुछ नया घट सकता है। हमेशा नए के हक में निर्णय लो-- चाहे जो भी जोखिम हो, और तुम सतत विकसित होओगे। और ज्ञात के पक्ष में निर्णय लो तो तुम अतीत के साथ एक वर्तुल में घूमते रहोगे। तुम दोहराते रहोगे, तुम एक ग्रामोफोन रिकार्ड बन गए हो।
और निर्णय लो। जितने जल्दी निर्णय ले सको उतना अच्छा। स्थगित करना बिलकुल मूढ़ता है। कल भी तुम्हें निर्णय लेना ही होगा, तो आज ही क्यों नहीं? और क्या तुम ऐसा सोचते हो कि कल तुम आज से ज्यादा समझदार होओगे?क्या तुम सोचते हो कि कल तुम आज से ज्यादा जीवंत होओगे? क्या तुम सोचते हो कि कल तुम आज से अधिक जवान और ताज़ा होओगे? कल तुम ज्यादा बूढ़े हो ओगे, तुम्हारा साहस कम होगा, तुम अधिक अनुभवी हो ओगे, तुम्हारी चालाकी अधिक होगी। कल मौत अधिक पास आएगी, तुम कंपना शुरू करोगे और भयभीत होओगे।
कल के लिए कभ स्थगित मत करना। किसे पता, कल आए न आए! अगर निर्णय लेना ही है तो अभी लेना होगा।

(सौजन्‍य से: ओशो इंटरनेश्‍नल न्‍यूज लेटर)


प्रतिबद्धता का भय



केवल निर्णय लेने से ही तुम अधिक से अधिक सजग हो सकते हो, केवल निर्णय लेने से ही तुम अधिक से अधिक स्पष्ट हो सकते है, केवल निर्णय लेने से ही तुम तीक्ष्ण बुद्धि के बन सकते हो, अन्यथा तुम सुस्त रह जाओगे|
लोग एक गुरु से दूसरे गुरु के पास जाते है, एक सतगुरु से दूसरे सतगुरु के पास जाते है, एक मंदिर से दूसरे में, इसलिए नहीं कि वे एक महान खोजी है, पर इसलिए कि वे निर्णय लेने में असमर्थ होते है| इसलिए वे एक को छोड़ कर दूसरे की ओर जाते है| यह उनका प्रतिबद्धता से बचने का मार्ग है|

कुछ ऐसा ही अन्य मानवीय संबंधों में भी होता है : पुरुष एक स्त्री से दूसरी स्त्री की ओर जाता है, और बदलता ही चला जाता है| लोग समझते है कि वह एक महान प्रेमी है; लेकिन वह कोई प्रेमी नहीं है, वह केवल बच रहा है, वह किन्हीं गहरे संबंधों से बचने की कोशिश कर रहा है| क्योंकि गहरे संबंधों में समस्याओं का सामना करना पड़ता है| और इसमें बहुत पीड़ा से गुज़रना पड़ता है| इसलिए व्यक्ति केवल सुरक्षित रहना चाहता है; लोग कोशिश करते हैं कि किसी के भीतर गहरे न उतरें। अगर तुम ज्यादा गहरे गए तो हो सकता है तुम आसानी से वापिस न आओ। और तुम किसी के भीतर गहरे उतरो तो कोई और भी तुम्हारे भीतर गहरे उतरेगा–– उसी अनुपात में। अगर मैं तुम्हारे भीतर गहरे जाऊं तो इसका रास्ता यही है कि मैं भी तुम्हें अपने भीतर गहरे प्रवेश करने दूं। यह लेन-देन है, साझेदारी है। फिर हो सकता है व्यक्ति अत्यधिक उलझ जाए, और भागना मुश्किल हो जाए और असहनीय पीड़ा हो। इसलिए लोग सुरक्षित रहना पसंद करते हैं कि सिर्फ सतहों को मिलने दो। छिछले प्रेम संबंध! इससे पहले कि तुम फंसो, भाग खड़े होओ।
आधुनिक जीवन में ऐसा ही हो रहा है। लोग बचकाने हो गए हैं, इतने बचकाने कि उनकी सारी परिपक्वता खो गई है। परिपक्वता तभी आती है जब तुम आंतरिक पीड़ा से गुज़रने के लिए तैयार होते हो। प्रौढ़ता तभी आती है जब तुम यह चुनौती स्वीकारने के लिए तैयार होते हो। और प्रेम से बढ़कर कोई चुनौती नहीं है।  दूसरे व्यक्ति के साथ प्रसन्नता पूर्वक रहना दुनिया में से बड़ी से बड़ी चुनौती है । अकेले शांति पूर्वक जीना बहुत आसान है, किसी दूसरे के साथ शांति पूर्वक जीना महा कठिन है क्योंकि दो संसार टकराते हैं, दो दुनियाएं मिलती हैं–– सर्वथा भिन्न दुनियाएं। वे एक दूसरे से आकर्षित कैसे होते हैं? क्योंकि वे एक  दूसरे से बिलकुल अलग हैं, लगभग विपरीत धृव हैं।

जारी----
(सौजन्‍य से: ओशो इंटरनेश्‍नल न्‍यूज लेटर)

प्रेम और सेक्स में विरोध-अन्तिम





 जीवन को प्रेम से भरें
आप कहेंगे, हम सब प्रेम करते हैं। मैं आपसे कहूं, आप शायद ही प्रेम करते हों; आप प्रेम चाहते होंगे। और इन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। प्रेम करना और प्रेम चाहना, ये बड़ी अलग बातें हैं। हममें से अधिक लोग बच्चे ही रहकर मर जाते हैं। क्योंकि हरेक आदमी प्रेम चाहता है। प्रेम करना बड़ी अदभुत बात है। प्रेम चाहना बिलकुल बच्चों जैसी बात है।
छोटे-छोटे बच्चे प्रेम चाहते हैं। मां उनको प्रेम देती है। फिर वे बड़े होते हैं। वे और लोगों से भी प्रेम चाहते हैं, परिवार उनको प्रेम देता है। फिर वे और बड़े होते हैं। अगर वे पति हुए, तो अपनी पत्नियों से प्रेम चाहते हैं। अगर वे पत्नियां हुईं, तो वे अपने पतियों से प्रेम चाहती हैं। और जो भी प्रेम चाहता है, वह दुख झेलता है। क्योंकि प्रेम चाहा नहीं जा सकता, प्रेम केवल किया जाता है। चाहने में पक्का नहीं है, मिलेगा या नहीं मिलेगा। और जिससे तुम चाह रहे हो, वह भी तुमसे चाहेगा। तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। दोनों भिखारी मिल जाएंगे और भीख मांगेंगे। दुनिया में जितना पति-पत्नियों का संघर्ष है, 
उसका केवल एक ही कारण है कि वे दोनों एक-दूसरे से प्रेम चाह रहे हैं और देने में कोई भी समर्थ नहीं है।
इसे थोड़ा विचार करके देखना आप अपने मन के भीतर। आपकी आकांक्षा प्रेम चाहने की है हमेशा। चाहते हैं, कोई प्रेम करे। और जब कोई प्रेम करता है, तो अच्छा लगता है। लेकिन आपको पता नहीं है, वह दूसरा भी प्रेम करना केवल वैसे ही है जैसे कि कोई मछलियों को मारने वाला आटा फेंकता है। आटा वह मछलियों के लिए नहीं फेंक रहा है। आटा वह मछलियों को फांसने के लिए फेंक रहा है। वह आटा मछलियों को दे नहीं रहा है, वह मछलियों को चाहता है, इसलिए आटा फेंक रहा है। 
इस दुनिया में जितने लोग प्रेम करते हुए दिखायी पड़ते हैं, वे केवल प्रेम पाना चाहने के लिए आटा फेंक रहे हैं। थोड़ी देर वे आटा खिलाएंगे, फिर... और दूसरा व्यक्ति भी जो उनमें उत्सुक होगा, वह इसलिए उत्सुक होगा कि शायद इस आदमी से प्रेम मिलेगा। वह भी थोड़ा प्रेम प्रदर्शित करेगा। थोड़ी देर बाद पता चलेगा, वे दोनों भिखमंगे हैं और भूल में थे; एक-दूसरे को बादशाह समझ रहे थे! और थोड़ी देर बाद उनको पता चलेगा कि कोई किसी को प्रेम नहीं दे रहा है और तब संघर्ष की शुरुआत हो जाएगी।
दुनिया में दाम्पत्य जीवन नर्क बना हुआ है, क्योंकि हम सब प्रेम मांगते हैं, देना कोई भी जानता नहीं है।
झगड़े का बुनियादी कारण
सारे झगड़े के पीछे बुनियादी कारण इतना ही है। और कितना ही परिवर्तन हो, किसी तरह के विवाह हों, किसी तरह की समाज व्यवस्था बने, जब तक जो मैं कह रहा हूं अगर नहीं होगा, तो दुनिया में स्त्री और पुरुषों के संबंध अच्छे नहीं हो सकते। उनके अच्छे होने का एक ही रास्ता है कि हम यह समझें कि प्रेम दिया जाता है, प्रेम मांगा नहीं जाता, सिर्फ दिया जाता है। जो मिलता है, वह प्रसाद है, वह उसका मूल्य नहीं है। प्रेम दिया जाता है। जो मिलता है, वह उसका प्रसाद है, वह उसका मूल्य नहीं है। नहीं मिलेगा, तो भी देने वाले का आनंद होगा कि उसने दिया। अगर पति-पत्नी एक-दूसरे को प्रेम देना शुरू कर दें और मांगना बंद कर दें, तो जीवन स्वर्ग बन सकता है। और जितना वे प्रेम देंगे और मांगना बंद कर देंगे, उतना ही--अदभुत जगत की व्यवस्था है--उन्हें प्रेम मिलेगा। और उतना ही वे अदभुत 
अनुभव करेंगे--जितना वे प्रेम देंगे, उतना ही सेक्स उनका विलीन होता चला जाएगा।

(सौजन्‍य से : ओशो इंटर नेशनल न्‍यूज  लेटर)

प्रेम और सेक्स में विरोध







1
आप जानकर हैरान होंगे, प्रेम और काम, प्रेम और सेक्स विरोधी चीजें हैं। जितना प्रेम विकसित होता है, सेक्स क्षीण हो जाता है। और जितना प्रेम कम होता है, उतना सेक्स ज्यादा हो जाता है। जिस आदमी में जितना ज्यादा प्रेम होगा, उतना उसमें सेक्स विलीन हो जाएगा। अगर आप परिपूर्ण प्रेम से भर जाएंगे, आपके भीतर सेक्स जैसी कोई चीज नहीं रह जाएगी। और अगर आपके भीतर कोई प्रेम नहीं है, तो आपके भीतर सब सेक्स है।
सेक्स की जो शक्ति है, उसका परिवर्तन, उसका उदात्तीकरण प्रेम में होता है। इसलिए अगर सेक्स से मुक्त होना है, तो सेक्स को दबाने से कुछ भी न होगा। उसे दबाकर कोई पागल हो सकता है। और दुनिया में जितने पागल हैं, उसमें से सौ में से नब्बे संख्या उन लोगों की है, जिन्होंने सेक्स की शक्ति को दबाने की कोशिश की है। और यह भी शायद आपको पता होगा कि सभ्यता जितनी विकसित होती है, उतने पागल बढ़ते जाते हैं, क्योंकि सभ्यता सबसे ज्यादा दमन सेक्स का करवाती है। 
सभ्यता सबसे ज्यादा दमन, सप्रेशन सेक्स का करवाती है! और इसलिए हर आदमी अपने सेक्स को दबाता है, सिकोड़ता है। वह दबा हुआ सेक्स विक्षिप्तता पैदा करता है, अनेक बीमारियां पैदा करता है, अनेक मानसिक रोग पैदा करता है। सेक्स को दबाने की जो भी चेष्टा है, वह पागलपन है। ढेर साधु पागल होते पाए जाते हैं। उसका कोई कारण नहीं है सिवाय इसके कि वे सेक्स को दबाने में लगे हुए हैं। और उनको पता नहीं है, सेक्स को दबाया नहीं जाता। प्रेम के द्वार खोलें, तो जो शक्ति सेक्स के मार्ग से बहती थी, वह प्रेम के प्रकाश में परिणत हो जाएगी। जो सेक्स की लपटें मालूम होती थीं, वे प्रेम का प्रकाश बन जाएंगी। प्रेम को विस्तीर्ण करें। प्रेम सेक्स का क्रिएटिव उपयोग है, उसका सृजनात्मक उपयोग है।
जारी---
(सौजन्‍य से : ओशो इंटर नेशनल न्‍यूज  लेटर)

आंसुओं से भयभीत मत होना






आंसुओं से कभी भी भयभीत मत होना। तथाकथित सभ्यता ने तुम्हें आंसुओं से अत्यंत भयभीत कर दिया है। इसने तुम्हारे भीतर एक तरह का अपराध भाव पैदा कर दिया है। जब आंसू आते हैं तो तुम शर्मिंदा महसूस करते हो। तुम्हें लगता है कि लोग क्या सोचते होंगे? मैं पुरुष होकर रो रहा हूं!यह कितना स्त्रैण और बचकाना लगता है। ऐसा नहीं होना चाहिये। तुम उन आंसुओं को रोक लेते होऔर तुम उसकी हत्या कर देते हो जो तुम्हारे भीतर पनप रहा होता है।

जो भी तुम्हारे पास है, आंसू उनमें सबसे अनूठी बात है, क्योंकि आंसू तुम्हारे अंतस के छलकने का परिणाम हैं। आंसू अनिवार्यत: दुख के ही द्योतक नहीं हैं; कई बार वे भावातिरेक से भी आते हैं, कई बार वे अपार शांति के कारण आते हैं, और कई बार वे आते हैं प्रेम व आनंद से। वास्तव में उनका दुख या सुख से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ भी जो तुमारी ह्रदय को छू जाये, कुछ भी जो तुम्हें अपने में आविष्ट कर ले, कुछ भी जो अतिरेक में हो, जिसे तुम समाहित न कर सको, बहने लगता है, आंसुओं के रूप में ।

इन्हें अत्यंत अहोभाव से स्वीकार करो, इन्हें जीयो, उनका पोषण करो, इनका स्वागत करो, और आंसुओं से ही तुम जान पाओगे प्रार्थना करने की कला।
(सौजन्‍य से- ओशो न्‍यमज  लेटर)

विशिष्ट होने की आवश्यकता


http://www.osho.com/GeneralPicture/Spacer.gif


http://www.osho.com/GeneralPicture/Spacer.gif
http://www.osho.com/GeneralPicture/Spacer.gif
http://www.osho.com/GeneralPicture/Spacer.gif
http://www.osho.com/GeneralPicture/Spacer.gif
http://www.osho.com/GeneralPicture/Spacer.gif


अन्तिम
                           
http://www.osho.com/GeneralPicture/Spacer.gif
http://www.osho.com/GeneralPicture/Spacer.gif
मुझे यहां दर्द है, माथे में।

यहां दर्द हो रहा है क्योंकि तुम इसे समझने की कोशिश नहीं कर रही-इसलिये दर्द होता है। तुम इसकी निंदा कर रही हो;तुम [स्वयं से] कह रही हो,’तुम्हें अवसाद में नहीं जाना है। यह तुम नहीं हो, यह तुम्हारी छबि के लिये ठीक नहीं है यह तुम्हारी छबि के खिलाफ है, यह तुमपर धब्बा है, और तुम इतनी खूबसूरत लड़की हो! तुम अवसाद से भरी क्यों हो?’- यह समझने की बजाय कि तुम अवसाद से भरी क्यों हो।

अवसाद का अर्थ है कि किसी कारणवश क्रोध तुम्हारे भीतर नकारात्मक रूप में विद्यमान है: अवसाद क्रोध का नकारात्मक रूप है।अंग्रेज़ी का शब्द डिप्रैशन अर्थपूर्ण है- इसका अर्थ है कि कुछ प्रैस किया गया है, दबाया गया है; डिप्रैस्ड का यही अर्थ है। तुम भीतर कुछ दबा रहे हो, और जब क्रोध को बहुत अधिक दबाया जाता है तो वह उदासी बन जाता है। उदासी क्रोधित होने का नकारात्मक रूप है, क्रोधित होने का स्त्रैण रूप।

यदि तुम इसपर से दबाव हटा लो तो यह क्रोध बन जायेगा। तुम अपने बचपन से कुछ चीजों के बारे में क्रोधित रहे होगे, लेकिन उन्हें व्यक्त न कर पाये होगे, इसलिये है यह डिप्रैशन। इसे समझने का प्रयास करो! और समस्या यह है कि डिप्रैशन को सुलझाया नहीं जा सकता, क्योंकि यह वास्तविक समस्या नहीं है। वास्तविक समस्या है क्रोध- और तुम डिप्रैशन की निंदा करे चले जाते हो, तो तुम परछाइंयों से लड़ रहे हो।


पहले यह देखो कि तुम डिप्रैस्ड क्यों होइसे गहरे में देखो और तुम क्रोध को पाओगे। तुम्हारे भीतर बहुत क्रोध भरा हैसंभव है मां के प्रति हो, पिता के प्रति हो, संसार के प्रति हो, तुम्हारे अपने प्रति हो, लेकिन सवाल यह नहीं है। तुम भीतर क्रोध से भरे हो, और बचपन से ही तुम मुस्कराने का प्रयत्न करते रहे हो, ताकि क्रोधित न हो सको। यह सही नहीं है। तुम्हे यह सिखाया गया है और तुमने इसे ठीक से सीख लिया है। तो बाहर तुम प्रसन्न दिखाई देते हो, बाहर से तुम मुस्कराते चले जाते हो, और यह सब मुस्कराहटें झूठी हैं। भीतर गहरे में कहीं भारी क्रोध छुपा रखा है तुमने। अब तुम इसे व्यक्त तो कर नहीं पाते इसलिये इसपर बैठे हो- इसी का नाम डिप्रैशन है; तब तुम डिप्रैस्ड महसूस करते हो।

इसे बहने दो, क्रोध को आने दो। एक बार क्रोध आ गया तो डिप्रैशन तिरोहित हो जायेगा। क्या तुमने इसे कभी देखा नहीं, जाना नहीं? – कि कई बार वास्तविक क्रोध के पश्चात व्यक्ति बहुत अच्छा महसूस करता है, बहुत जीवंत? घर में कुछ करना शुरू करो। हूं? रोजाना क्रोध-ध्यान करोबीस मिनट बहुत होंगे। तीसरे दिन के बाद तुम इस व्यायाम को इतना पसंद करोगे, कि तुम इसकी प्रतीक्षा न कर सकोगे। यह तुम्हें इतना हल्का कर देगा, और तुम देखोगे कि तुम्हारा डिप्रैशन तिरोहित हो रहा है। पहली बार तुम सचमुच मुस्कुराओगेक्योंकि इस डिप्रैशन के साथ तुम मुस्कुरा नहीं सकते, बस ढोंग कर सकते हो।

व्यक्ति मुस्कराहटों के बिना नहीं जी सकता, इसलिये उसे ढोंग करना पड़ता है, लेकिन एक झूठी मुस्कराहट बहुत पीड़ा दे जाती हैयह हमें प्रसन्न नहीं करती, यह सिर्फ हमें यह स्मरण दिलाती है कि हम कितने दुखी हैं। 

लेकिन तुम इसके प्रति सजग हो गये हो-यह शुभ है। जब भी कुछ पीड़ा पहुंचाये, यह सहायता करेगा। मनुष्य इतना बीमार है कि जब भी कुछ सहायक सिद्ध होता है, यह पीड़ा पहुंचाता है, यह कहीं किसी घाव को छेड़ देता है। लेकिन यह शुभ हुआ है
 समाप्‍त
(सौजन्‍य से :  ओशो न्‍यूज लेटर )

विशिष्ट होने की आवश्यकता


http://www.osho.com/GeneralPicture/Spacer.gif
एक

http://www.osho.com/GeneralPicture/Spacer.gif
http://www.osho.com/GeneralPicture/Spacer.gif
http://www.osho.com/GeneralPicture/Spacer.gif
मैं अवसाद व आत्म-निंदा से भरा रहता हूं, हालांकि मुझे मालूम नहीं क्यों…?
http://www.osho.com/GeneralPicture/Spacer.gif
http://www.osho.com/GeneralPicture/Spacer.gif
http://www.osho.com/GeneralPicture/Spacer.gif
http://www.osho.com/GeneralPicture/Spacer.gif
वैसे ही बने रहने का तरीका है यहयह मन की चालाकी है। बजाय इसके कि समझा जाये, ऊर्जा निंदा की ओर चलना प्रारंभ कर देती हैजबकि बदलाव समझ से आता है, निंदा से नहीं। तो मन अत्यंत चालाक है: जैसे ही तुम कोई सच्चाई देखना शुरू करते हो, मन इसपर हावी हो जाता है और निंदा करनी शुरू कर देता है। अब सपूर्ण ऊर्जा निंदा बन जाती है, समझ भूल जाती है, हट जाती है, और तुम्हारी ऊर्जा निंदा की ओर बहने लगती हैलेकिन निंदा सहायक नहीं होती। यह तुम्हें अवसाद से भर सकती है, यह तुम्हें क्रोध से भर सकती है, लेकिन अवसाद और क्रोध तुम्हें कभी बदल नहीं सकती। तुम वैसे ही रहते हो, उसी दुष्चक्र में घूमते।

समझ तुम्हें मुक्त करती है, तो जब भी तुम कोई सत्य देखो, उसकी निंदा करने की कोई आवश्यकता नहीं, उसके बारे में चिंतित होने की कोई आवश्यकता नहीं। आवश्यकता है तो इस बात की कि तुम उसमें गहरे जाओ और उसे समझने की कोशिश करो। 

यदि मैं तुम्हें कुछ कहता हूं और वह तुम्हें चुभ जाता है- और वही मेरा उद्देश्य भी है कि यह तुमपर कहीं चोट करे- तो तुम्हें देखना है कि चोट क्यों लगती है, कहां लगती है और समस्या क्या है। तुम्हें इसके भीतर जाना है। इसे भीतर से देखना, इसे चारों ओर से समझना, सब पक्षों से जाननायदि तुम निंदा करते हो तो देख नहीं पाते, इसे सब पक्षों से पढ़ नहीं पाते। तुमने पहले ही निर्णय कर लिया है कि यह बुरा है, इसे बिना कोई मौका दिये तुमने पहले ही निर्णय दे दिया है।

सत्य को सुनो, इसके भीतर जाओ, इसे गुनो, इसे भूल जाओ, और जितना तुम इसे पढ़ पाओगे, उतनी ही इससे मुक्त होने की तुममें क्षमता आयेगी। इसे समझने की क्षमता और इससे मुक्त होने की क्षमता एक ही घटना के दो नाम है।

यदि मुझे कोई बात समझ में आती है तो मुझमें इससे बाहर आने की क्षमता आती है, इसका अतिक्रमण करने की क्षमता आती है। यदि मुझे कोई बात समझ में नहीं आती तो मैं इससे बाहर नहीं आ सकता। तो मन सब के साथ यही करे चले जाता है, केवल तुम्हारे साथ ही नहीं। तत्क्षण तुम बीच में कूद जाते हो और वक्तव्य देते हो,’यह गलत है, यह मुझमें नहीं होना चाहिये, मैं योग्य नहीं हूं, मेरे संबंध गलत हैं, यह गलत है, वह गलत है।और तुम अपराध-भाव से भर जाते हो। अब संपूर्ण ऊर्जा अपराध-भाव की ओर बह रही है, जबकि यहां मेरा कार्य है तुम्हें अपराध-भाव से जितना संभव है उतना मुक्त कर सकूं।

तो जो भी तुम देखो उसे निजी रूप में मत लो; इसका तुमसे विशेष कुछ लेना-देना नहीं; मन का यही ढंग है कार्य करने का। यदि ईर्ष्या है, मालकियत है, क्रोध है, मन इसी प्रकार कार्य करता हैलगभग सबका मन; अंतर केवल डिग्री का है।

मन की एक और प्रक्रिया है: या तो यह प्रशंसा करनी चाहता है या निंदा। यह मध्य में कभी नहीं रहता। प्रशंसा से तुम विशिष्ट हो जाते हो और तुम्हारा अहंकार की तृप्ति होती है; निंदा से भी तुम विशिष्ट होते हो। जरा चालाकी देखो: दोनो ओर से तुम विशिष्ट होते हो! वह विशिष्ट है: या तो वह संत है, एक महान संत, या फिर वह बहुत बड़ी पापिन है, लेकिन दोनों ओर से तुम्हारा अहंकार तृप्त होता है। हर प्रकार से तुम एक ही बात कह रहे हो- कि तुम विशिष्ट हो। मन यह नहीं सुनना चाहता कि वह साधारण मात्र है। यह ईर्ष्या, यह क्रोध, यह सबधों की और हमारे होने की समस्याएं। यह सब साधारण हैं, सब इन्हीं में फंसे हैं। वह उतने ही साधारण हैं जितने हमारे बाल। किसी के ज़्यादा हैं तो किसी के थोड़े, किसी के काले हैं तो किसी के लाल, लेकिन यह अधिक महत्वपूर्ण नहीं है- यह सब साधारण हैं, सब समस्याएं साधारण हैं। सब पाप साधारण हैं और सब पुण्य साधारण है, लेकिन अहंकार विशिष्ट महसूस करना चाहता है। या तो यह कहता है कि तुम श्रेष्टतम हो या निकृष्टतम।

तो बस देखोयह सब साधारण समस्याएं हैं? क्या समस्याएं हैं, मुझे बताओ? तुम क्या समस्याएं अनुभव करती हो? बस उनके नाम लो।
(सौजन्‍य से- ओशो  न्‍यूज लेटर)
जारी---