आत्मज्ञान की आकांक्षा

आत्मज्ञान एकमात्र ज्ञान है। क्योंकि जो स्वयं को ही नहीं जानते उनके और सब कुछ जानने का मूल्य ही क्या है?
मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई मनुष्य का अपने प्रति ही अज्ञान है। दीये के नीचे जैसे अंधेरा होता है, वैसे ही मनुष्य उस सत्ता के ही प्रति अंधकार में होता है, जो कि उसकी आत्मा है। हम स्वयं को नहीं जानते हैं और तब यदि हमारा सारा जीवन ही गलत दिशाओं में चला जाता हो, तो आश्चर्य करना व्यर्थ है। आत्मज्ञान के अभाव में जीवन उस नौका की भांति, जिसका चलाने वाला होश में नहीं है, लेकिन नौका को चलाये जा रहा है। जीवन को सम्यक गति और गंतव्य देने के लिये स्वयं का ज्ञान आधारभूत है। इसके पूर्व कि जानूं कि मुझे क्या होना है, यह जानना बहुत अनिवार्य है कि मैं क्या हूं। मैं जो हूं, उससे परिचित होकर ही, मैं भविष्य के आधार रख सकता हूं, जो कि अभी मुझमें सोया हुआ है। मैं जो हूं, उसे जानकर ही मुझमें अभी जो अजन्मा है, उसका जन्म हो सकता है। यदि जीवन को सार्थकता देनी है, तो और कुछ जानने से पहले स्वयं को जानने में लग जाओ। उसके बाद ही शेष ज्ञान का भी उपयोग होता है। अन्यथा, अज्ञान के हाथों में आया ज्ञान आत्मघाती ही सिद्ध होता है।
ज्ञान की पहली आकांक्षा स्वयं को जानने की है। उस बिंदु पर अंधकार है, तो सब जगह अंधकार है और, वहां प्रकाश है, तो सब जगह प्रकाश है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)