आनंद और दुख


सुबह एक पत्र मिला है। किसी ने उसमें पूछा है कि जीवन दुख में घिरा है, फिर भी आप आनंद की बात कैसे करते हैं? जो है, उसे देखें तो आनंद की बात कल्पना प्रतीत होती है।
निश्चय ही जीवन दुख में घिरा है, चारों ओर दुख है; पर जो घिरा है, वह दुख नहीं है। जब तक जो घेरे है, उसे देखते रहेंगे, दुख ही मालूम होगा; पर जिस क्षण उसे देखने लगेंगे, जो घिरा है, तो उसी क्षण दुख असत्य हो जाता है।
कुल-दृष्टिं परिवर्तन की बात है। जो दृष्टिं दृष्टा को प्रकट कर देती है, वही दृष्टिं है। शेष सब अंधापन है। दृष्टा के प्रकट होते ही सब आनंद हो जाता है, क्योंकि आनंद उसका स्वरूप है। जगत फिर भी रहता है, पर दूसरा हो जाता है। आत्म-अज्ञान के कारण उसमें जो कांटे मालूम हुए थे, वे अब कांटे नहीं मालूम होते हैं।
दुख की सत्ता वास्तविक नहीं है, क्योंकि परावर्ती अनुभव से वह खंडित हो जाती है। जागने पर जैसे स्वप्न अवास्तविक हो जाता है, वैसे ही स्व-बोध पर दुख खो जाता है।
आनंद सत्य है, क्योंकि वह स्व है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)