दृष्टिं को भीतर ले चलना है


धूप में मंदिर कलश चमक रहे हैं। आकाश खुला है और राह पर लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है। मैं राह चलते लोगों को देखता हूं, पर न मालूम क्यों ऐसा नहीं लगता कि वे जीवित हैं। जीवन का, अस्तित्व का बोध न हो, तो किसी को जीवित कैसे कहा जा सकता है! जीवन आता है और कब व्यय हो जाता है, यह जैसे ज्ञात नहीं हो पाता है। साधरणत: जब मृत्यु की घडि़यां आती हैं, तब जीवन का बोध होता है।
एक कहानी पढ़ी थी।
एक व्यक्ति था-बिलकुल भुलक्कड़। वह भूल ही गया था कि वह जीवित है। फिर एक दिन वह सुबह उठा और उसने पाया कि वह मर गया है, तब उसे ज्ञात हुआ कि वह जीवित भी था! इस कहानी में बहुत सत्य है।
मैं इस कहानी का स्मरण कर रहा हूं। बहुत हँसी आती है कि मरकर भी किसी ने पाया है कि वह जीवित था; पर हँसी धीरी-धीरे उदासी में बदल जाती है। यह कैसी दयनीय स्थिति है!
मैं यह सोच ही रहा हूं कि कुछ लोग आ गये हैं। उन्हें देखता हूं, उनकी बातें सुनता हूं, उनकी आंखों में झांकता हूं। जीवन उनमें कहीं भी नहीं है। वे तो जैसे छाया की तरह हैं। सारा जगत छायाओं से भर गया है। अपने ही हाथों अधिक लोग प्रेत-लोक में रह रहे हैं। और इन छायाओं के भीतर जीवित आग है-जीवन है, लेकिन उन्हें इसका पता नहीं है। इस छाया-जीवन के भीतर वास्तविक जीवन है और इस प्रेत-जीवन के पार सत्य-जीवन भी है, जिसे अभी और यहीं पाया जा सकता है।
और, इसे पाने की शर्त कितनी छोटी है!
और, इसे पाने का उपाय कितना सरल है!
कल मैंने कहा है, 'दृष्टिं को भीतर ले चलना है।'
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)