शून्यता में ही सागर उतर कर पूर्ण करता है!

मैं मनुष्य को इतना भरा हुआ देखता हूं कि उन पर मुझे बहुत दया आती है। उनमें किंचित भी अवकाश नहीं है, थोड़ा सा भी आकाश नहीं है। जिसमें आकाश नहीं है, वह मुक्त कैसे हो सकता है? मुक्ति के लिए बाहर नहीं, भीतर आकाश चाहिए। जिसमें भीतर आकाश होता है, वह बाहर के आकाश से एक हो जाता है और अंतस आकाश जब विश्व के आकाश से एक होता है- वह सम्मिलन, वह संगम, वह संपरिवर्तन ही मुक्ति है। वही ईश्वरानुभव है।
इसलिए मैं ईश्वर से किसी को भरने को नहीं कहता हूं- वरन सबसे कहता हूं कि अपने को खाली कर लो और तुम पाओगे कि ईश्वर ने तुम्हें भर दिया है।
वर्षा में जब बदलियां पानी गिराती हैं, तो टीले जल से वंचित ही रह जाते हैं और गड्ढे परिपूरित हो जाते हैं। गड्ढों की तरह बनो, टीलों की तरह नहीं। अपने के भरो मत, खाली करो ओर प्रभु की वर्षा तो प्रतिक्षण हो रही है- जो उस जल को अपने में लेने को खाली है, वह भर दिया जाता है।
गागर का मूल्य यही है कि वह खाली है; वह जितनी खाली होती है, सागर उसे उतना ही भर देता है।
मनुष्य का मूल्य भी उतना ही है, जितना कि वह शून्य है, उस शून्यता में ही सागर उतरता है और उसे पूर्ण करता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)