समाधि


मैं मनुष्य को शब्दों से घिरा देखता हूं। पर शास्त्र और शब्द व्यर्थ हैं। उस भांति सत्य के संबंध में जाना जा सकता है, लेकिन सत्य को जानने का वह मार्ग नहीं है।
शब्द से सत्ता नहीं आती है। सत्ता का द्वार शून्य है।
शब्द से नि:शब्द में छलांग लगाने का साहस ही धार्मिकता है।
विचार 'पर' को जानने का उपाय है। वह 'स्व' को नहीं देता है। 'स्व' उसके पीछे जो है। 'स्व' सबके पूर्व है। 'स्व' से हम सत्ता में संयुक्त होते हैं। विचार भी 'पर' है। वह भी जब नहीं है, तब 'जो है' वह होता है। उसके पूर्व मैं 'अहं' हूं और उसमें 'ब्रह्मं' हूं।
सत्य में, सत्ता में स्व-पर मिट जाता है। वह भेद भी विचार में और विचार का ही था।
चेतना के तीन रूप हैं- बाह्य मू‌िर्च्छत-अंतर्मू‌िर्च्छत, बाह्य जाग्रत-अंतर्मू‌िर्च्छत और बाह्य जाग्रत-अंतर्जाग्रत। पहला रूप : मूच्र्छा- अचेतना का है। वह जड़ता है। वह विचार पूर्व की स्थिति है। दूसरा रूप : अर्ध-मूच्र्छा- अर्ध चेतना का है। वह जड़ और चेतना के बीच है। वह विचार की स्थिति है। तीसरा रूप : अमूच्र्छा- पूर्ण चेतना का है। वह पूर्ण चैतन्य है और विचारातीत है।
सत्य को जानने के लिए केवल विचाराभाव ही नहीं पाना है। वह तो जड़ता में, मूच्र्छा में ले जाते है। धर्म के नाम से प्रचलित बहुत सही क्रियाएं मूच्र्छा में ही ले जाती हैं। शराब, सेक्स और संगीत भी मूच्र्छा में ही ले जाती हैं। मूच्र्छा में पलायन है। वह उपलब्धि नहीं है।
सत्य को पाने के लिए विचार-शून्यता ओर चैतन्य पाना होता है। उस स्थिति का नाम समाधि है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

समयातीत होना आनंद है

कल दोपहर एक पहाड़ी के आंचल में था। धूप-छाया के विस्तार में बड़ी सुखद घडि़यां बीतीं। निकट ही था, एक तालाब और हवा के तेज थपेड़ों ने उसे बेचैन कर रखा था। लहरें उठती-गिरतीं और टूटती उसका सब कुछ विक्षुब्ध था।
फिर हवाएं सो गयीं और तालाब भी सो गया।
मैंने कहा, 'देखो, जो बेचैन होता है, वह शांत भी हो सकता है। बेचैनी अपने में शांति छपाए हुए है। तालाब अब शांत है, तब भी शांत था। लहरें ऊपर ही थीं, भीतर पहले भी शांति थी।'
मनुष्य भी ऊपर ही अशांत है। लहरें ऊपर ही हैं, भीतर गहराई में घना मौन है। विचारों की हवाओं से दूर चलें और शांत सरोवर के दर्शन हो जाते हैं। यह सरोवर 'अभी और यहीं' पाया जा सकता है। समय का प्रश्न नहीं है, क्योंकि समय वहीं तक है, जहां तक विचार हैं। ध्यान समय के बाहर है। ईशा ने कहा, 'और वह समय नहीं है। .....'
समय में दुख है। समय दुख है। समयातीत होना आनंद
में होना है।
चलो मित्र, समय के बाहर चलें- वहीं हम हैं। समय के भीतर जो दिखता है, वह समय के बाहर ही है। इतना जानना ही चलना है। जाना कि हवाएं रुक जाती हैं और सरोवर शांत हो जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

आंखें खोलो, स्वर्ग का राज तुम्हारा है


नीले नभ के नीचे सूरज की गर्मी फैल गयी है। सर्दी घनी हो गई है और दूब पर जमे ओस के कण बर्फ जैसे ठण्डे लगते हैं। फूलों से ओस की बूंदे टपक रही हैं। रातरानी रात भर सुगंध देकर सो गई है।एक मुर्गा बांग देता है और फिर दूर-दूर से उसके प्रत्युत्तर आते हैं। वृक्ष मलय के झोंकों से कांप रहे हैं और चिडि़यों के गीत बंद ही नहीं होते हैं।सुबह अपने हस्ताक्षर सब जगह कर देती है। सारा जगत अचानक कहने लगता है कि सुबह हो गई है।मैं बैठा दूर वृक्षों में खो गये रास्ते को देखता हूं। धीरे-धीरे राह भरने लगती है और लोग निकलते हैं। वे चलते, पर सोये से लगते हैं। किसी आंतरिक तंद्रा ने सबको पकड़ा हुआ है। सुबह के इन आनंद क्षणों के प्रति वे जागे हुए नहीं लगते हैं, जैसे कि उन्हें ज्ञात ही नहीं कि जो जगत के पीछे है, वह इन क्षणों में अनायास प्रकट हो जाता है।जीवन में कितना संगीत है और मनुष्य कितना बधिर है!जीवन में कितना सौंदर्य है और मनुष्य कितना अंधा है!जीवन में कितना आनंद है और मनुष्य कितना संवेदन-शून्य है!उस दिन उन पहाडि़यों पर गया था। उन सुंदर पर्वत-पंक्तियों में हम देर तक रुके थे; पर जो मेरे साथ थे, वे जीवन की दैनंदिन क्षुद्र बातों में ही लगे हुए थे। उन सब बातों में जिनका कोई अर्थ नहीं, जिनका होना न होना बराबर है। इन बातों की ओट ने उन्हें उस पर्वतीय संध्या के सौंदर्य से वंचित कर दिया था। इस तरह क्षुद्र में आवेष्टिंत हम विराट से अपरिचित रह जाते हैं और जो निकट ही है, वह अपने हाथों दूर पड़ जाता है।मैं कहना चाहता हूं, ''ओ मनुष्य! तुझे खोना कुछ भी नहीं है, सिवाय अपने अंधेपन के और पा लेना है, सब-कुछ। अपने हाथों बने भिखारी! आंखें खोल। पृथ्वी और स्वर्ग का सारा राज्य तेरा है।''(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

शून्य के लिए ही मेरा आमंत्रण

एक साधु ने अपने आश्रम के अंत:वासियों को जगत के विराट विद्यालय में अध्ययन के लिए यात्रा को भेजा था। समय पूरा होने पर वे सब, केवल एक को छोड़कर, वापस लौट आये थे। उनके ज्ञानार्जन और उपलब्धियों को देखकर गुरु बहुत प्रसन्न हुआ था। वे बहुत कुछ सीख कर वापस लौटे थे। फिर अंत में पीछे छूट गया युवक भी लौट आया। गुरु ने उससे कहा, 'निश्चय ही तुम सबसे बाद में लौटे हो, इसलिए सर्वाधिक सीख कर लौटे होगे।' उस युवक ने कहा, 'मैं कुछ सीख कर नहीं लौटा हूं, उलटा जो आपने सिखाया था, वह भी भूल आया हूं।' इससे अधिक निराशाजनक उत्तर और क्या हो सकता था!
फिर एक दिन वह युवक गुरु की मालिश कर रहा था। गुरु की पीठ को मलते हुए उसने स्वगत ही कहा, 'मंदिर तो बहुत सुंदर है, पर भीतर भगवान की मूर्ति नहीं है।' गुरु ने सुना, उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। निश्चय ही वे शब्द उससे ही कहे गये थे। उसके ही सुंदर शरीर को उसने मंदिर कहा था। गुरु के क्रोध को देखकर वह युवक हंसने लगा था। वह ऐसा ही था कि जैसे कोई जलती अग्नि पर और घृत डाल दे। गुरु ने उसे आश्रम से अलग कर दिया था।
फिर एक सुबह जब गुरु अपने धर्मग्रंथ का अध्ययन कर रहा था, वह युवक अनायास कहीं से आकर पास बैठ गया था। वह बैठा रहा, गुरु पढ़ता रहा। तभी एक जंगली मधुमक्खी कक्ष में आकर बाहर जाने का मार्ग खोजने लगी थी। द्वार तो खुला ही था-वही द्वार, जिससे वह भीतर आयी थी, पर वह बिलकुल अंधी होकर बंद खिड़की से निकलने की व्यर्थ चेष्टा कर रही थी। उसकी भनभन मंदिर के सन्नाटे में गूंज रही थी। उस युवक ने खड़े होकर जोर से उस मधुमक्खी से कहा, 'ओ, नासमझ, वह द्वार नहीं, दीवार है। रुक और पीछे देख, जहां से तेरा आना हुआ है, द्वार वही है।'
मधुमक्खी ने तो नहीं, पर उस गुरु ने ये शब्द अवश्य सुने और उसे द्वार मिल गया। उसने युवक की आंखों में पहली बार देखा। वह वह नहीं था, जो यात्रा पर गया था। ये आंखें दूसरी ही थीं। उसने उस दिन जाना कि वह जो सीखकर आया है, वह कोई साधारण सीखना नहीं है।
वह सीखकर नहीं कुछ जानकर आया था।
गुरु ने उससे कहा, 'मैं आज जान रहा हूं कि मेरा मंदिर भगवान से खाली है और मैं आज जान रहा हूं कि मैं आज तक दीवार से ही सिर मारता रहा हूं और मुझे द्वार नहीं मिला है। पर अब मैं द्वार को पाने के लिए क्या करूं? क्या करूं कि मेरा मंदिर भगवान से खाली न रहे?' उस युवक ने कहा, 'भगवान को चाहते हो, तो स्वयं से खाली हो जाओ। जो स्वयं भरा है, वही भगवान से खाली है। जो स्वयं से खाली हो जाता है, वह पाता है कि वह सदा से ही भगवान से भरा हुआ था। और इस सत्य तक द्वार पाना चाहते हो, तो वही करो, जो वह अब मधुमक्खी कर रही है।'
गुरु ने देखा मधुमक्खी अब कुछ नहीं कर रही है। वह दीवार पर बैठी है और बस बैठी है। उसने समझा, वह जागा। जैसे अंधेरे में बिजली कौंध गई हो, ऐसा उसने जाना और उसने देखा कि मधुमक्खी द्वार से बाहर जा रही है।
यह कथा मेरा पूरा संदेश है। यही मैं कह रहा हूं। भगवान को पाने को कुछ करना नहीं है, वरन सब करना छोड़कर देखना है। चित्त जब शांत होता है और देखता है, तो द्वार मिल जाता है। शांत और शून्य चित्त ही द्वार है। उस शून्य के लिए ही मेरा आमंत्रण है। वह आमंत्रण धर्म का ही है। उस आमंत्रण को स्वीकार कर लेना ही धार्मिक होना है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

भय

महावीर ने पूछा है : श्रमणो, प्राणियों को भय क्या है?
कल कोई यही पूछता था और कोई पूछे या न पूछे, प्रश्न तो यही प्रत्येक की आंखों में है। शायद यह सनातन प्रश्न है और शायद यह अकेला ही प्रश्न है, जो पूछना सार्थक भी है।
प्रत्येक भयभीत है। ज्ञात में, अज्ञात में भय सरक रहा है।
उठते-बैठते सोते-जाते भय बना हुआ है। प्रत्येक क्रिया में, व्यवहार में, विचार में भय है। प्रेम में, घृणा में, पाप में सब भय है। जैसे हमारी पूरी चेतना ही भय से निर्मित है। हमारे विश्वास, धारणाएं, धर्म और ईश्वर भय के अतिरिक्त और क्या हैं?
यह भय क्या है? भय के अनेक रूप हैं, पर भय एक ही है। वह मृत्यु है। यह मूल भय है। मिटने की, न जाने की संभावना ही समस्त भय के मूल में है। भय अर्थात न हो जाने की, मिटने की आशंका। इस आशंका से बचने का प्रयास पूरे जीवन चलता है। सब प्रयास इस मूल असुरक्षा से बचने को हैं।
पर पूरे जीवन दौड़कर भी 'होना' सुनिश्चित नहीं हो पाता है। दौड़ हो जाती है, समाप्त-असुरक्षा वैसी ही बना रहती है। जीवन हो जाता है, पूरा और मृत्यु टल नहीं पाती है। तब ज्ञान होता है कि जीवन जैसा था ही नहीं, केवल मृत्यु विकसित हो रही थी। जन्म और मृत्यु जैसे जीवन के ही दो छोर थे।
यह मृत्यु का भय क्यों? मृत्यु तो अज्ञात है। वह तो अपरिचित है। उसका भय कैसे होगा? जो ज्ञात ही नहीं है, उससे संबंध भी क्या हो सकता है?
वस्तुत: जिसे हम मृत्यु का भय कहते हैं, वह मृत्यु का न होकर, जिसे हम जीवन जीवन जानते हैं, उसके खोने का डर है। जो ज्ञात है, उसके खोने का भय है। जो ज्ञात है, उससे हमारा तादात्म्य है। वह हमारा होना बन गया है। वही हमारी सत्त बन गयी है। मेरा शरीर, मेरी संपत्ति, मेरी प्रतिष्ठ, मेरे संबंध, मेरे
संस्कार, मेरे विश्वास, मेरे विचार-यही मेरे 'मैं' के प्राण बन गये हैं। यही 'मैं' हो गया है। मृत्यु इस 'मैं' को छीन लेगी। यही भय है।
इस सबको इकट्ठा किया जाता है, भय से बचने, सुरक्षा पाने को और होता उलटा है- इसे खोने की आशंका ही भय बन जाती है। मनुष्य साधारणत: जो भी करता है, वह सब जिसके लिए किया जाता है, उसके विपरीत चलता है।
आज्ञान से आनंद के लिए उठाये गये सब कदम दुख में ले जाते हैं। अभय के लिए चला गया रास्त और भय में ले जाता है। जो 'स्व' की प्राप्ति मालूम होती है, वह 'स्व' नहीं है। यदि इस सत्य के प्रति जागना हो जाये- यदि मैं यह जान सकूं कि जिसे मैंने 'मैं' जाना है, वह 'मैं' नहीं हूं और इस क्षण भी मेरे तादात्म्य से मैं भिन्न और पृथक हूं, तो भय विसर्जित हो जाता है। मृत्यु में जो 'पर' है, वही खोता है।
इस सत्य को जानने के लिए कोई क्रिया, कोई उपाय नहीं करना है। केवल उन-उन तथ्यों को जानना है, उन-उन तथ्यों के प्रति जागना है, जिन्हें मैं समझता हूं कि 'मैं' हूं- जिनसे मेरा तादात्म्य है। जागरण तादात्म्य तोड़ देता है। जागरण 'स्व' और 'पर' को पृथक कर देता है। 'स्व' और 'पर' का तादात्म्य भय है और उनका पृथक बोध भय-मुक्ति है-अभय है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

विजय पथ

मैंने कल कहा है : मिट्टी फूल बन जाती है। और गंदगी खाद बनकर सुगंध में परिणत हो जाती है। ऐसे ही मनुष्य के विकार हैं। जो मनुष्य में पशु जैसे दिखते हैं। वही दिशा परिवर्तित होने पर दिव्यता को उपलब्ध हो जाते हैं।
इसलिए अदिव्य भी बीजरूप में दिव्य हैं और तब वस्तुत: अदिव्य कुछ भी नहीं हैं। समस्त जीवन दिव्यता है। सब कुछ दिव्य है। भेद केवल उस दिव्यता की अभिव्यक्ति का है।
और ऐसा देखने पर कुछ भी घृणा करने योग्य नहीं रह जाता है। जो एक छोर पर पशु है, वही दूसरे छोर पर प्रभु है। पशुता और दिव्यता में विरोध नहीं, विकास है। ऐसी पृष्ठभूमि में चलने पर आत्म-दमन और उत्पीड़न व्यर्थ है। यह संघर्ष अवैज्ञानिक है। अपने को दो में तोड़कर कोई भी आत्म-शांति और ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सकता है।
जो मैं ही हूं, उसके एक अंश को नष्ट किया जा सकता है। वह दब सकता है, लेकिन जिसका दमन किया गया है, उसका निरंतर दमन करना होता है। जो हारा गया है, उसे निरंतर हारना होता है। विजय उस मार्ग से कभी पूर्ण नहीं हो पाती है।
विजय का पथ दूसरा है। वह दमन का नहीं, ज्ञान का है। वह गंदगी को हटाने का नहीं है, क्योंकि वह गंदगी भी मैं ही हूं। वह उसे खाद बनाने का है। इसे ही पुरानी अलकेमी में 'लोहे को स्वर्ण बनाना' कहा गया है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

मृत्यु और जीवन

भोर का आखिरी तारा डूब रहा है। कुहासे में ढंकी सुबह का जन्म होने को है। पूरब पर प्रसव की लाली फैल गयी है।
मित्र ने अपने किसी प्रियजन की मृत्यु की खबर दी है। रात्रि ही देह से उनका संबंध टूटा है। फिर थोड़ी देर की चुप्पी के बाद वे मृत्यु पर बात करने लगे हैं। बहुत सी बातें और अंत में उन्होंने पूछा : 'रोज मृत्यु होती है, फिर भी प्रत्येक ऐसे जीता है कि जैसे उसे मरना नहीं है! यह समझ में ही नहीं आता है कि मैं भी मर सकता हूं। इतनी मृत्यु के बीच, यह अमृत्व का विश्वास क्यों?'
यह विश्वास बहुत अर्थपूर्ण है। यह इसलिए है कि म‌र्त्य देह में जो बैठा है, वह म‌र्त्य नहीं है। मृत्यु की परिधि है, पर केंद्र पर मृत्यु नहीं है।
वह जो देख रहा है- देह-मन का दृष्टा है- वह जानता है कि मैं देह और मन से पृथक हूं। वह म‌र्त्य का दृष्टा, म‌र्त्य नहीं है। वह जान रहा है : सब मृत्युओं को पार करके भी मैं अमृत शेष रह जाता हूं।'
पर यह बोध अचेतन है, इसे चेतन बना लेना ही मुक्त हो जाना है। मृत्यु प्रत्यक्ष दीखती है, अमृत का बोध परोक्ष है- उसे भी जो प्रत्यक्ष बना लेता है, वह जान लेता है उसे- जिसका न जन्म है, न मृत्यु है।
वह जीवन-जो जीवन और मृत्यु के अतीत है- पा लेना ही मोक्ष है। वह प्रत्येक के भीतर है, उसे केवल जानना भर है।
एक साधु से किसी ने पूछा था, 'मृत्यु क्या है और जीवन क्या है? यह जानने मैं आपके पास आया हूं।' उस साधु ने प्रत्युत्तर में जो कहा, वह अद्भुत है। उसने कहा था, 'तब कहीं और जाओ। मैं जहां हूं, वहां न मृत्यु है, न जीवन है।'
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)