मध्य मार्ग


जीवन-सत्य संयम और संगीत से मिलता है। जो किसी भी दिशा में अति करते हैं, वे मार्ग से भटक जाते हैं। मनुष्य का मन अतियों में डोलता और चलता है। एक अति से दूसरी अति पर चला जाना उसे बहुत आसान है। ऐसा उसका स्वभाव ही है। शरीर के प्रति जो बहुत आसक्त है, वही व्यक्ति प्रतिक्रिया में शरीर के प्रति बहुत कठोर और क्रूर हो सकता है। इस कठोरता और क्रूरता में भी वही आसक्ति प्रच्छन्न होती है। और इसलिए जैसे वह पहले शरीर से बंधा था, वैसा अब भी- बिलकुल विपरीत दिशा से शरीर से बंधा होता है। शरीर का ही चिंतन पहले था, शरीर का ही चिंतन अब भी होता है। इस भांति विपरीत अति पर जाकर मन धोखा दे देता है और उसकी जो मूल वृत्ति थी, उसे बचा लेता है। मन का सदा अतियों में चलने का मूल कारण यही है। मन की इस विपरीत अतियों में चलने की प्रवृत्ति को मैं असंयम कहता हूं।

फिर संयम किसे कहता हूं? दो अतियों के बीच मध्य खोजने और उस मध्य में थिर होने का नाम संयम है। जहां संयम होता है, जीवन वहीं संगीत से भर जाता है। संगीत संयम का फल है।

शरीर के प्रति राग और विराग का मध्य खोजने और उसमें स्थिर होने से वीतरागी का संयम उपलब्ध होता है।

संसार के प्रति आसक्ति और विरक्ति का मध्य खोजने और उसमें स्थिर होने से संन्यास का संयम उपलब्ध होता है। इस भांति जो समस्त अतियों में संयम को साधता है, वह अतियों के अतीत हो जाता है और उसके जीवन में निर्वाण के संगीत का अवतरण होता है।

मनुष्य अतियों में जीता है और यदि अतियां न हों, तो वह विलीन हो जाता है। उसके कोलाहल के विलीन हो जाने पर सहज ही वह संगीत सुनाई पड़ने लगता है, जो कि सदा सदैव से ही स्वयं के भीतर निनादित हो रहा है। स्वयं का वह संगीत ही निर्वाण है, मोक्ष है, परम-ब्रह्मं है।

पानी में डूबने से बचना है, तो आग की लपटों में स्वयं को डाल देना-बचाव का कोई मार्ग नहीं है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

1 comment:

Udan Tashtari said...

हरि ओम..हरि ओशो. हरि त्यागी जी. सबकी जय हो. कितना पुण्य लूटेंगे महाराज त्यागी जी. :)