भय ही अधर्म!


कोई पूछता था : भय क्या है? मैंने कहा, ''अज्ञान। स्वयं को न जानना ही भय है। क्योंकि, जो स्वयं को नहीं जानता, वह केवल मृत्यु को ही जानता है। जहां आत्म-बोध है, वहां जीवन ही जीवन है- परमात्मा ही परमात्मा है। और, परमात्मा में होना ही अभय में होना है। उसके पूर्व सब अभय मिथ्या हैं।''
सूर्य ढलने को है और मुहम्मद अपने किसी साथी के साथ एक चट्टान के पीछे छिपे हुए हैं। शत्रु उनका पीछा कर रहे हैं और उनका जीवन संकट में है। शत्रु की सेनाओं की आवाज प्रतिक्षण निकट आती जा रही है। उनके साथी ने कहा, ''अब मृत्यु निश्चित है, वे बहुत हैं और हम दो ही हैं! उसकी घबराहट, चिंता और मृत्यु-भय स्वाभाविक ही है।'' शायद, जीवन थोड़ी देर का ही और है। लेकिन, उसकी बात सुन मुहम्मद हंसने लगे और उन्होंने कहा, ''दो? क्या हम दो ही हैं? नहीं - दो नहीं, तीन- मैं, तुम और परमात्मा।'' मुहम्मद की आंख शांत हैं और उनके हृदय में कोई भय नहीं है, क्योंकि जिन आंखों में परमात्मा हो, उनमें मृत्यु वैसे ही नहीं होती है- जैसे कि जहां प्रकाश होता है, वहां अंधकार नहीं होता है।
निश्चय ही यदि आत्मा है- परमात्मा है, तो मृत्यु नहीं है। क्योंकि, परमात्मा में तो केवल जीवन ही हो सकता है। और यदि परमात्मा नहीं है, तो जो भी है, सब मृत्यु ही है। क्योंकि, जड़ता और जीवन का क्या संबंध? जीवन को जानते ही मृत्यु विलीन हो जाती है। जीवन का अज्ञान ही मृत्यु है।
धर्म भय से ऊपर उठने का उपाय है। क्योंकि, धर्म जीवन को जोड़ने वाला सेतु है। जो धर्म को भय पर आधारित समझते हैं, वे या तो धर्म को समझते ही नहीं है या फिर जिसे धर्म समझते हैं, वह धर्म नहीं है। भय ही अधर्म है। क्योंकि, जीवन को न जानने के अतिरिक्त और क्या अधर्म हो सकता है!
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

1 comment:

tarunbairagi said...

i like oshos comment on life