पाप-पुण्य!



कुछ युवकों ने मुझ से पूछा : ''पाप क्या है?'' मैंने कहा, ''मूर्च्‍छा'' वस्तुत: होश पूर्वक कोई भी पाप करना असंभव है। इसलिए, मैं कहता हूं कि जो परिपूर्ण होश में हो सके, वही पुण्य है। और जो मूच्र्छा, बेहोशी के बिना न हो सके वही पाप है।
एक अंधकार पूर्ण रात्रि में किसी युवक ने एक साधु के झोपड़े में प्रवेश किया। उसने जाकर कहा, ''मैं आपका शिष्य होना चाहता हूं।'' साधु ने कहा, ''स्वागत है। परमात्मा के द्वार पर सदा ही सबका स्वागत है।'' वह युवक कुछ हैरान हुआ और बोला, ''लेकिन बहुत त्रुटियां हैं, मुझ में! मैं बहुत पापी हूं!'' यह सुन साधु हंसने लगा और बोला : ''परमात्मा तुम्हें स्वीकार करता है, तो मैं अस्वीकार करने वाला कौन हूं! मैं भी सब पापों के साथ तुम्हें स्वीकार करता हूं।'' उस युवक ने कहा, ''लेकिन मैं जुआ खेलता हूं, मैं शराब पीता हूं- मैं व्यभिचारी हूं।'' वह साधु बोला, ''मैंने तुम्हें स्वीकार किया, क्या तुम भी मुझे स्वीकार करोगे? क्या तुम जिन्हें पाप कह रहे हो, उन्हें करते समय कम से कम इतना ध्यान रखोगे कि मेरी उपस्थिति में उन्हें न करो। मैं इतनी तो आशा कर ही सकता हूं!'' उस युवक ने आश्वासन दिया। गुरु का इतना आदर स्वाभाविक ही था। लेकिन कुछ दिनों बाद जब वह लौटा और उसके गुरु ने पूछा कि तुम्हारे उन पापों का क्या हाल है, तो वह हंसने लगा और बोला, ''मैं जैसे ही उनकी मूच्र्छा में पड़ता हूं कि आपकी आंखें सामने आ जाती हैं और मैं जाग जाता हूं। आपकी उपस्थिति मुझे जगा देती है। और, जागते हुए तो गड्ढों में गिरना असंभव है!''
मेरे देखे पाप और पुण्य मात्र कृत्य ही नहीं हैं। वस्तुत: तो वे हमारे अंत:करण के सोये होने या जागे होने की सूचनाएं हैं। जो सीधे पापों से लड़ता है, या पुण्य करना चाहता है, वह भूल में है। सवाल कुछ 'करने' या 'न करने' का नहीं है। सवाल तो भीतर कुछ 'होने' या 'न-होने' का है। और, यदि भीतर जागरण है, होश है, स्व-बोध है, तो ही तुम हो, अन्यथा घर के मालिक के सोये होने पर जैसे चोरों को सुविधा होती है, वैसी ही सुविधा पापों को भी है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

3 comments:

Udan Tashtari said...

जय हो महाराज!!

Krishna said...

सवाल कुछ 'करने' या 'न करने' का नहीं है। सवाल तो भीतर कुछ 'होने' या 'न-होने' का है।

Simon said...

Thanks forr sharing this