धर्म, सम्राट बनाने की कला है-2


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      अधिक लोग इसलिए जीवन को व्यर्थ कर लेते हैं कि उन्हें पता ही नहीं कि जीवन में क्या बचाने योग्य है, क्या छोड़ देने योग्य है। हम सब वस्तुएं और सामान बचाने में लग जाते हैं और खुद का व्यक्तित्व, खुद की आत्मा खो देते हैं। एक तो कारण यह है कि मनुष्य धार्मिक नहीं हो पाता। और जो मनुष्य धार्मिक नहीं हो पाता है वह मनुष्य कभी आनंदित भी नहीं हो सकता है। धार्मिक होना और आनंदित होना, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। अधार्मिक होना और दुखी होना, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। इसलिए कोई कभी कल्पना न करे कि अधार्मिक होते हुए भी कोई व्यक्ति कभी आनंदित हो सकता है। यह असंभव है। जैसे शरीर की बीमारियां हैं, और शरीर से बीमार आदमी कैसे आनंदित हो सकता है? शरीर तो स्वस्थ चाहिए। वैसे ही आत्मा की बीमारियां भी हैं। अधर्म आत्मा की बीमारी का नाम है। जो आत्मा की बीमारी में पड़ा हुआ है वह कैसे आनंदित हो सकता है? शरीर दुखी हो तो भी एक आदमी भीतर आनंदित हो सकता है। लेकिन भीतर की आत्मा ही दुखी हो तब तो आनंदित होने की कोई उम्मीद नहीं है, कोई आशा नहीं है। लेकिन जिस आत्मा को आनंदित करना है उस आत्मा के लिए हम कुछ भी नहीं करते, शरीर के लिए सब कुछ करते हैं। व्यर्थ की चीजों के लिए बहुत कुछ करते हैं। जैसे छोटे बच्चे समुद्र के किनारे पत्थर बीन कर इकट्ठा कर लेते हैं और सोचते हैं कि कोई बहुत बड़ा काम कर लिया। जैसे कि छोटे बच्चे समुद्र के किनारे बैठ कर रेत के मकान बना लेते हैं और लड़ते हैं, झगड़ते हैं--कि मेरा मकान तोड़ दिया! मेरे मकान पर लात मार दी! लेकिन उन्हें पता नहीं कि थोड़ी देर में मां की आवाज आएगी घर से और वह सब मकान वहीं किनारे पर, रेत के किनारे पर छोड़ कर चले जाना पड़ेगा; न कोई मकान किसी का है, न किसी के मिटने से कुछ मिटता है, न बनने से कुछ बनता है। 
    ऐसे ही हम जिंदगी में जो मकान बनाते हैं--मिट्टी के, बाहर के, वस्तुओं के, पदार्थ के--एक दिन पुकार आती है ऊपर से और रेत के किनारे पर सब छोड़ कर चले जाना पड़ता है। फिर उनका कोई हिसाब नहीं रखा जा सकता। फिर उन्हें साथ भी नहीं ले जाया जा सकता। जाते वक्त, जमीन से विदा होते वक्त हाथ खाली होते हैं। लेकिन जिन चीजों से भरने में हमने जीवन गंवा दिया, उनमें से एक भी हमारे साथ नहीं होती। और ध्यान रहे, वही है संपत्ति जो मृत्यु के क्षण में भी साथ रहे। वह संपत्ति नहीं है जो मृत्यु के क्षण में छूट जाए। 
       सिकंदर मरा, तो जिस राजधानी में उसकी अरथी निकली, हजारों-लाखों लोग उस अरथी को देखने इकट्ठे हुए थे। लेकिन हर आदमी एक ही सवाल पूछने लगा। सिकंदर के दोनों हाथ अरथी के बाहर लटके हुए थे। ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ था। किसी के हाथ अरथी के बाहर लटके नहीं देखे गए थे। लोग पूछने लगे, कोई भूल हो गई है? लेकिन किसी भिखमंगे की अरथी होती तो भूल भी हो सकती थी। सिकंदर की अरथी थी। बड़े-बड़े सम्राट कंधा दे रहे थे। ये हाथ क्यों लटके हुए हैं बाहर? फिर धीरे-धीरे लोगों को पता चला, सिकंदर ने खुद ही चाहा था कि मेरे हाथ बाहर लटके रहने देना। मित्रों ने पूछा था कि यह क्या पागलपन है? हाथ बाहर कभी किसी के लटके देखे नहीं गए। किसलिए चाहते हो कि हाथ बाहर लटके रहें? तो सिकंदर ने कहा था, मैं चाहता हूं कि लोग देख लें कि मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं, मेरे हाथ भी भरे हुए नहीं हैं। 
जिंदगी भर दौड़ कर हाथ भरते हैं और फिर पाते हैं कि हाथ खाली रह गए हैं। जिंदगी भर ये हाथ खाली थे। सारी दौड़ व्यर्थ हो जाती है। कुछ मिलता नहीं, सिर्फ मिलता हुआ मालूम पड़ता है। करीब-करीब ऐसे ही जैसे दूर दिखाई पड़ता है कि पृथ्वी जमीन को छू रही है, हम थोड़े आगे बढ़ेंगे तो वह जगह आ जाएगी जहां जमीन आकाश को छूता है। लेकिन हम जितने आगे बढ़ते हैं उतना ही वह घेरा भी आगे बढ़ता चला जाता है। हम जिंदगी भर चलते रहें, पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा लें, वह जगह नहीं आएगी जहां जमीन आकाश को छूती है। वह सिर्फ छूती हुई दिखाई पड़ती है, वह कहीं छूती नहीं। ठीक ऐसे ही आदमी जिंदगी भर सोचता है: यह मिल जाए, यह मिल जाए, यह मिल जाए। और सब मिल जाएगा एक दिन, ऐसा लगता है आगे, आगे कहीं मिलने की जगह आ जाएगी। दौड़ता है, दौड़ता है, दौड़ता है। आखिर गिर जाता है, मिलने का वक्त नहीं आता, हाथ खाली ही रह जाते हैं। 
जारी-------
(सौजन्‍य से : ओशो न्‍यूज  लेटर)

1 comment:

babumylove said...

goood very goood very very very goood............osho ek aisee kitaab hai jise bina aankh wale bhi pdha skte or aankh waale bhi.....yahaan tk ki jiske paas kuch v nhi wo bhi pdh skte ...thank u sir aaap osho ko pdne wale ho kaaphi achcha lga.! prabhash