परम निधि की खोज!


आदर्श को चुनने में कभी कंजूसी मत करना। वह तो ऊंचे से ऊंचा होना चाहिए। वस्तुत: तो परमात्मा से नीचे जो है, वह आदर्श ही नहीं है। आदर्श उसकी भविष्यवाणी है, जो कि अंतत: तुम करके दिखा दोगे। वह तुम्हारे स्वरूप की परम अभिव्यक्ति की घोषणा है।
सुबह से सांझ तक बहुत लोग मेरे पास आते हैं। उनसे मैं पूछता हूं कि तुम्हारे प्राण कहां हैं? एकाएक वे समझ नहीं पाते। फिर, मैं उनसे कहता हूं कि प्रत्येक प्राण उसके जीवन दर्शन में होते हैं वह जो होना चाहता है, जो पाना चाहता है, उसमें ही उसके प्राण होते हैं। और जो कुछ भी नहीं होना चाहता है, कुछ भी नहीं पाना चाहता है, वही निष्प्राण है। यह हमारे हाथों में है कि हम अपने प्राण कहां रखें। जो जितनी ऊंचाइयों या निचाइयों पर उन्हें रखता है, उतनी ही ऊ‌र्ध्वगामी या अधोगामी उसकी जीवनधारा हो जाती है और श्वास-प्रश्वास में स्मृति उसी ओर दौड़ती रहती है। और, स्मृति जिस दिशा में दौड़ती है, क्रमश: विचार उसी पथ पर बीजारोपित होने लगते हैं। विचार आचार के बीज हैं। आज जो विचार हैं, कल वे ही अनुकूल अवसर पाकर अंकुरित हो, आचार बन जाते हैं। इसलिए जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है- अपने प्राणों को रखने के लिए सम्यक स्थल चुनना। जो इस चुनाव के बिना चलते हैं, वे उन नावों की भांति हैं, जो सागर में छोड़ दी गई हैं, लेकिन जिन्हें गंतव्य को कोई बोध नहीं। ऐसी नावें निकलने के पहले ही डूबी समझनी चाहिए। जो अविवेक और प्रमाद में बहते रहते हैं, उनके प्राण उनकी दैहिक वासनाओं में ही केंद्रित हो जाते हैं। ऐसे मनुष्य, शरीर के ऊपर और किसी सत्य से परिचित नहीं हो पाते। वे उस परम निधि से वंचित रह जाते हैं, जोकि उनके भीतर छिपी हुई थी।
अविवेक और प्रमाद से जागकर आंखें खोलो और उन हिमाच्छादित जीवन शिखरों को देखो, जो कि सूर्य के प्रकाश में चमक रहे हैं और तुम्हें अपनी ओर बुला रहे हैं। यदि तुम अपने हृदय में उन तक पहुंचने की आकांक्षा को जन्म दे सको, तो वे जरा भी दूर नहीं हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

अभय समाधि है!


धर्म में जो भय से प्रवेश करते हैं, वे भ्रम में ही रहते हैं कि उनका धर्म में प्रवेश हुआ है। भय और धर्म का विरोध है। अभय के अतिरिक्त धर्म का और कोई द्वार नहीं है।
कोई पूछता था : ''आप कहते हैं कि प्रभु भीतर है। पर मुझे तो कोई भी दिखाई नहीं पड़ता!'' उससे मैंने कहा, ''मित्र, तुम ठीक कहते हो। लेकिन उसका न दिखाई पड़ना, उसका न-होना नहीं है। बादल घिरे हों, तो सूर्य के दर्शन नहीं होते और आंख बंद हों, तो भी उसका प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता। मैं खुद हजारों आंखों में झांकता हूं और हजारों हृदयों में खोजता हूं, तो मुझे वहीं भय के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं पड़ता। और, स्मरण रहे कि जहां भय है, वहां भगवान का दर्शन नहीं हो सकता। भय काली बदलियों की भांति उस सूर्य को ढके रहता है। और, भय का धुआं ही आंखों को खुलने नहीं देता। भगवान में जिसे प्रतिष्ठित होना हो, उसे भय को विसर्जित करना होगा। इसलिए, यदि उस परम सत्ता के दर्शन चाहते हो, तो समस्त भय का त्याग कर दो। भय से कंपित चित्त शांत नहीं हो पाता है और जो निकट ही है, जो कि तुम स्वयं ही हो, उसका भी दर्शन नहीं होता। भय कंपन है, अभय थिरता है। भय चंचलता है, अभय समाधि है।''
भय मन के लिए क्या करता है? वही जो अंधापन आंखों के लिए करता है। सत्य की खोज में भय को कोई स्थान नहीं। स्मरण रहे कि भगवान के भय को भी स्थान नहीं है। भय तो भय है, इससे कोई भेद नहीं पड़ता कि वह किसका है। पूर्ण अभय सत्य के लिए आंखें खोल देता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

सूर्य पर ध्यान दो!


''मनुष्य शुभ है या अशुभ?'' मैंने कहा स्वरूपत: शुभ। और, इस आशा व अपेक्षा को सबल होने दो। क्योंकि जीवन उ‌र्ध्वगमन के लिए इससे अधिक महत्वपूर्ण और कुछ नहीं है।''
एक राजा की कथा है, जिसने कि अपने तीन दरबारियों को एक ही अपराध के लिए तीन प्रकार की सजाएं दी थीं। पहले को उसने कुछ वर्षो का कारावास दिया, दूसरे को देश निकाला और तीसरे से मात्र इतना कहा : ''मुझे आश्चर्य है- ऐसे कार्य की तुमसे मैंने कभी भी अपेक्षा नहीं की थी!''
और जानते हैं कि इन भिन्न सजाओं का परिणाम क्या हुआ?
पहला व्यक्ति दुखी हुआ और दूसरा व्यक्ति भी तीसरा व्यक्ति भी। लेकिन उनके दुख के कारण भिन्न थे। तीनों ही व्यक्ति अपमान और असम्मान के कारण दुखी थे। लेकिन पहले और दूसरे व्यक्ति का अपमान दूसरों के समक्ष था, तीसरे का अपमान स्वयं के। और, यह भेद बहुत बड़ा है। पहले व्यक्ति ने थोड़े ही दिनों में कारागृह के लोगों से मैत्री कर ली और वहीं आनंद से रहने लगा। दूसरे व्यक्ति ने भी देश से बाहर जाकर बहुत बड़ा व्यापार कर लिया और धन कमाने लगा। लेकिन, तीसरा व्यक्ति क्या करता? उसका पश्चाताप गहरा था, क्योंकि वह स्वयं के समक्ष था। उससे शुभ की अपेक्षा की गई थी। उसे शुभ माना गया था। और, यही बात उसे कांटे की भांति गड़ने लगी और यही चुभन उसे ऊपर भी उठाने लगी। उसका परिवर्तन प्रारंभ हो गया, क्योंकि जो उससे चाहा था, वह स्वयं भी उसकी चाह से भर गया था।
शुभ या अशुभ, शुभ के जन्म का प्रारंभ है।
सत्य पर विश्वास, उसके अंकुरण के लिए वर्षा है।
और, सौंदर्य पर निष्ठा, सोये सौंदर्य को जगाने के लिए सूर्योदय है।
स्मरण रहे कि तुम्हारी आंखें किसी में अशुभ को स्वरूपत: स्वीकार न करें। क्योंकि, उस स्वीकृति से बड़ी अशुभ और कोई बात नहीं। क्योंकि वह स्वीकृति ही उसमें अशुभ को थिर करने का कारण बन जाएगी। अशुभ किसी का स्वभाव नहीं है, वह दुर्घटना है। और, इसलिए ही उसे देखकर व्यक्ति स्वयं के समक्ष ही अपमानित भी होता है। सूर्य बदलियों में छिप जाने से स्वयं बदलियां नहीं हो जाता है। बदलियों पर विश्वास न करना- किसी भी स्थिति में नहीं है। सूर्य पर ध्यान हो, तो उसके उदय में शीघ्रता होती है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

प्रेम ज्ञान है!



मेरा संदेश छोटा-सा है- ''प्रेम करो। सबको प्रेम करो। और ध्यान रहे कि इससे बड़ा कोई भी संदेश न है, न हो सकता है।''
मैंने सुना है : एक संध्या किसी नगर से एक अर्थी निकलती थी। बहुत लोग उस अर्थी के साथ थे। और, कोई राजा नहीं, बस एक भिखारी मर गया था। जिसके पास कुछ भी नहीं था, उसकी बिदा में इतने लोगों को देख सभी आश्चर्य चकित थे। एक बड़े भवन की नौकरानी ने अपने मालकिन को जाकर कहा कि किसी भिखारी की मृत्यु हो गई है और वह स्वर्ग गया है। मालकिन को मृतक के स्वर्ग जाने की इस अधिकारपूर्ण घोषणा पर हंसी आई और उसने पूछा : ''क्या तूने उसे स्वर्ग में प्रवेश करते देखा है?'' वह नौकरानी बोली, ''निश्चय ही मालकिन! यह अनुमान तो बिलकुल सहज है, क्योंकि जितने भी लोग उसकी अर्थी के साथ थे, वे सभी फूट-फूट कर रो रहे थे। क्या यह तय नहीं है कि मृतक जिनके बीच था, उन सब पर ही अपने प्रेम के बीज छोड़ गया है?''
प्रेम के चिन्ह- मैं भी सोचता हूं, तो दीखता है कि प्रेम के चिन्ह ही तो प्रभु के द्वार की सीढि़यां हैं। प्रेम के अतिरिक्त परमात्मा तक जाने वाला मार्ग ही कहां हैं? परमात्मा को उपलब्ध हो जाने का इसके अतिरिक्त और क्या प्रमाण है कि हम इस पृथ्वी पर प्रेम को उपलब्ध हो गये थे! पृथ्वी पर जो प्रेम है, परलोक में वही परमात्मा है।
प्रेम जोड़ता है, इसलिए प्रेम ही परम ज्ञान है। क्योंकि, जो तोड़ता है, वह ज्ञान ही कैसे होगा? जहां ज्ञाता से ज्ञेय पृथक है, वहीं अज्ञान है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

स्वयं को पाओ!



आविष्कार! आविष्कार! आविष्कार! कितने आविष्कार रोज हो रहे हैं! लेकिन जीवन संताप से संताप बनता जाता है। नरक को समझने के लिए अब किन्हीं कल्पनाओं की आवश्यकता नहीं। इस जगत को बतला कर कह देना ही काफी है : 'नरक ऐसा होता है।' और इसके पीछे कारण क्या है? कारण है कि मनुष्य स्वयं आविष्कृत होने से रह गया है।
मैं देख रहा हूं कि मनुष्य के लिए अंतरिक्ष के द्वार खुल गये हैं और उनकी आकाश की सुदूर गामी यात्रा की तैयारी भी पूरी हो चुकी है। लेकिन, क्या आश्चर्यजनक नहीं है कि स्वयं के अंतस के द्वार ही उसके लिए बंद हो गये हैं।
उस यात्रा का ख्याल ही उसे विस्मरण हो गया है, जो कि वह अपने भीतर कर सकता है। मैं पूछता हूं कि यह पाना है या कि खोना? मनुष्य ने यदि स्वयं को खोकर शेष सब कुछ भी पा लिया, तो उसका क्या अर्थ है और क्या मूल्य है! समग्र ब्रह्मंाण्ड की विजय भी उस छोटे से बिंदु को खोने का घाव नहीं भर सकती है, जो कि वह स्वयं है, जो कि उसकी निज सत्ता का केंद्र है।
रात्रि ही कोई पूछता था, ''मैं क्या करूं और क्या पाऊं?'' मैंने कहा : ''स्वयं को पाओ और जो भी करो, ध्यान रखो कि वह स्वयं के पाने में सहयोगी बने। स्वयं से जो दूर ले जावे, वही है, अधर्म और जो स्वयं में ले आवे, उसे ही मैंने धर्म जाना है।''
स्वयं के भीतर प्रकाश की छोटी-सी ज्योति भी हो, तो सारे संसार का अंधेरा पराजित हो जाता है। और, यदि स्वयं के केंद्र पर अंधकार हो, तो बाह्याकाश के करोड़ों सूर्य भी उसे नहीं मिटा सकते हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

प्रेम बड़ा शास्‍त्र !

शास्त्र क्या कहते हैं, वह नहीं- प्रेम जो कहे, वही सत्य है। क्या प्रेम से भी बड़ा कोई शास्त्र है। एक बार मोजेज किसी नदी के तट से निकलते थे। उन्होंने एक गड़रिये को स्वयं से बातें करते सुना। वह गड़रिया कह रहा था, ''ओ परमात्मा! मैंने तेरे संबंध में बहुत-सी बातें सुनी हैं। तू बहुत सुंदर है, बहुत प्रिय है, बहुत दयालु है- यदि कभी तू मेरे पास आया, तो मैं अपने स्वयं के कपड़े तुझे पहनाऊंगा और जंगली जानवरों से रात दिन तेरी रक्षा करूंगा। रोज नदी में नहलाऊंगा और अच्छी से अच्छी चीजें खाने को दूंगा- दूध, रोटी और मक्खन। मैं तुझे इतना प्रेम करता हूं। परमात्मा! मुझे दर्शन दे। यदि एक भी बार तुझे देख पाऊं, तो मैं अपना सब कुछ दे दूंगा।''
यह सब सुन मोजेज ने उस गड़रिये से कहा, ''मूर्ख! यह सब क्या कह रहा है? ईश्वर जो सबका रक्षक है, उसकी तू रक्षा करेगा? उसे तू रोटी देगा और अपने गंदे कपड़े पहनाएगा? उस पवित्र परमात्मा को तू नदी में नहलाएगा और सब-कुछ ही जिसका है, उसे तू अपना सब-कुछ देने का प्रलोभन दे रहा है?''
उस गडि़रिये ने सब सुना, तो बहुत दुख और पश्चाताप से कांपने लगा। उसकी आंखें आंसुओं से भर गई और वह परमात्मा से क्षमा मांगने को घुटने टेक कर जमीन पर बैठ गया। लेकिन, मोजेज कुछ ही कदम गये होंगे कि उन्होंने अपने हृदय की अंतरतम गहराई से यह आवाज आती हुई सुनी, ''पागल! यह तूने क्या किया? मैंने तुझे भेजा है कि तू मेरे प्यारों को मेरे निकट ला, लेकिन तूने उल्टे ही एक प्यारे को दूर कर दिया है!''
परमात्मा को कहां खोजे? मैंने कहा : ''प्रेम में। और प्रेम हो तो याद रखना कि वह पाषाण में भी है।''
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

ध्यान के लघु प्रयोग



विपरीत विचार!
यह एक सुंदर व उपयोगी विधि है। उदाहरण के लिए- यदि आप बहुत असंतुष्ट महसूस कर रहे हैं, तो उसके विपरीत संतोष का मनन करें- संतोष क्या है? एक संतुलन लाएं। अगर आपके मन में क्रोध उठ रहा है, तो करुणा को ले आएं, करुणा के बारे में विचार करें। और, तुरंत आपकी भाव दशा बदलने लगेगी, क्योंकि दोनों एक ही हैं, विपरीत भी वही ऊर्जा है। जैसे ही आप विपरीत भाव-दशा को ले आते हैं, तो वह पहली भव-दशा को पी जाती है, अपने में समाहित कर लेती है।
तो अगर क्रोध हो तो करुणा पर मनन करें। एक काम करें : बुद्ध की एक मूर्ति रख लें, क्योंकि बुद्ध की मूर्ति करुणा की मूर्ति है। जब भी क्रोध उठे, अपने कमरे में चले जाएं, बुद्ध को देखें, बुद्ध की तरह बैठ जाएं और करुणा का भाव करें। अचानक ही आप देखेंगे कि आपके भीतर एक रूपांतरण होने लगा है। क्रोध विलीन होने लगा, उत्तेजना चली गई, करुणा पैदा होने लगी। और यक कोई दूसरी ऊर्जा नहीं है। वही ऊर्जा है- वही क्रोध वाली ऊर्जा- लेकिन इसका गुणधर्म बदल गया, यह ऊपर उठने लगी है।

अद्वैत!
यह बहुत पुराने मंत्रों में से एक है। जब भी आप विभाजित महसूस करें, जब भी आप देखें कि द्वैत आ रहा है, तो भीतर सिर्फ कहें : 'अद्वैत'- लेकिन इसे पूरे होश से कहें, यांत्रिक ढंग से न दोहराएं। जब भी आप महसूस करें कि प्रेम उठ रहा है, कहें : 'अद्वैत'। नहीं तो पीछे घृणा प्रतीक्षा कर रही है- वे एक ही हैं। जब महसूस करें कि घृणा पैदा हो रही है, कहें : 'अद्वैत'। जब आप महसूस करें कि जीवन पर पकड़ पैदा हो रही है, कहें 'अद्वैत'। जब भी आप मौत का भय महसूस करें, कहें : 'अद्वैत'। एक ही हैं।
यह कहना आपकी अनुभूति होनी चाहिए। यह आपके बोध से, आपकी अंतर्दृष्टिं से आना चाहिए। और अचानक आप अपने भीतर एक शांति अनुभव करेंगे। जिस क्षण आप कहते हैं 'अद्वैत'- यदि आप इसे पूरे बोध से कह रहे हैं, सिर्फ यांत्रिक ढंग से नहीं दोहरा रहे हैं- तो अचानक आप एक प्रकाश से भर उठेंगे।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)