मैं लोगों को भय से कांपता देखता हूं। उनका पूरा जीवन ही भय के नारकीय कंपन में बीता जाता है, क्योंकि वे केवल उस संपत्ति को ही जानते हैं, जो कि उनके बाहर है। बाहर की संपत्ति जितनी बढ़ती है, उतना ही भय बढ़ता जाता है- जब कि लोग भय को मिटाने को ही बाहर की संपत्ति के पीछे दौड़ते हैं! काश! उन्हें ज्ञात हो सके कि एक और संपदा भी है, जो कि प्रत्येक के भीतर है। और, जो उसे जान लेता है, वह निर्भय हो जाता है।
अमावस की संध्या थी। सूर्य पश्चिम में ढल रहा था आर शीघ्र ही रात्रि का अंधकार उतर आने को था। एक वृद्ध संन्यासी अपने युवा शिष्य के साथ वन से निकलते थे। अंधेरे को उतरते देख उन्होंने युवक से पूछा, ''रात्रि होने को है, बीहड़ वन है। आगे मार्ग में कोई भय तो नहीं है?''
इस प्रश्न को सुन युवा संन्यासी बहुत हैरान हुआ। संन्यासी को भय कैसा? भय बाहर तो होता नहीं, उसकी जड़े तो निश्चय ही कहीं भीतर होती हैं!
संध्या ढले, वृद्ध संन्यासी ने अपना झोला युवक को दिया और वे शौच को चले गये। झोला देते समय भी वे चिंतित और भयभीत मालूम हो रहे थे। उनके जाते ही युवक ने झोला देखा, तो उसमें एक सोने की ईट थी! उसकी समस्या समाप्त हो गयी। उसे भय का कारण मिल गया था। वृद्ध ने आते ही शीघ्र झोला अपने हाथ में ले लिया और उन्होंने पुन: यात्रा आरंभ कर दी। रात्रि जब और सघन हो गई और निर्जन वन-पथ पर अंधकार ही अंधकार शेष रह गया, तो वृद्ध ने पुन: वही प्रश्न पूछा। उसे सुनकर युवक हंसने लगा और बोला, ''आप अब निर्भय हो जावें। हम भय के बाहर हो गये हैं।'' वृद्ध ने साश्चर्य युवक को देखा और कहा, ''अभी वन कहां समाप्त हुआ है?'' युवक ने कहा, ''वन तो नहीं भय समाप्त हो गया है। उसे मैं पीछे कुएं मैं फेंक आया हूं।'' यह सुन वृद्ध ने घबराकर अपना झोला देखा। वहां तो सोने की जगह पत्थर की ईट रखी थी। एक क्षण को तो उसे अपने हृदय की गति ही बंद होती प्रतीत हुई। लेकिन, दूसरे ही क्षण वह जाग गया और वह अमावस की रात्रि उसके लिए पूर्णिमा की रात्रि बन गयी। आंखों में आ गए इस आलोक से आनंदित हो, वह नाचने लगा। एक अद्भुत सत्य का उसे दर्शन हो गया था। उस रात्रि फिर वे उसी वन में सो गये थे। लेकिन, अब वहां न तो अंधकार था, न ही भय था!
संपत्ति और संपत्ति में भेद है। वह संपत्ति जो बाह्य संग्रह से उपलब्ध होती है, वस्तुत: संपत्ति नहीं है, अच्छा हो कि उसे विपत्ति ही कहें! वास्तविक संपत्ति तो स्वयं को उघाड़ने से ही प्राप्त होती है। जिससे भय आवे, वह विपत्ति है- और जिससे अभय, उसे ही मैं संपत्ति कहता हूं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
अमावस की संध्या थी। सूर्य पश्चिम में ढल रहा था आर शीघ्र ही रात्रि का अंधकार उतर आने को था। एक वृद्ध संन्यासी अपने युवा शिष्य के साथ वन से निकलते थे। अंधेरे को उतरते देख उन्होंने युवक से पूछा, ''रात्रि होने को है, बीहड़ वन है। आगे मार्ग में कोई भय तो नहीं है?''
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6 comments:
जय हो!! आज बहुत देर से आ पाया.
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और, जो उसे जान लेता है, वह भय हो जाता है।
please change bhay to nirbhay.
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धन्यवाद, भय को निर्भय कर दिया गया है।
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